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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना दुःखनिरोधका मार्ग है आष्टांगिकमार्ग-सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यग्वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । नैरात्म्यभावना मुख्य रूपसे मार्ग है । बुद्धने आत्मदृष्टि या सत्त्वदृष्टिको ही मिथ्यादर्शन कहा है । उनका कहना है एक आत्माको शाश्वत या स्थायी समझकर ही व्यक्ति उसे स्व और अन्यको पर समझता है । स्व-पर विभागसे परिग्रह और द्वेष हाते हैं और ये रागद्वेष ही समस्त संसार परम्पराके मूलस्रोत है । अत: इस सर्वानर्थमूलिका आत्मदृष्टिको नाशकर नंगम्यभावनासे दुःखनिरोध होता है । बुद्धका दृष्टिकोण--उपनिषद्का" तत्त्वज्ञान जहाँ आत्मदर्शनपर जोर देता था और आत्मदर्शनको ही तत्त्वज्ञान और मोक्षका परमसाधन मानता था और मुमुक्षुके लिए आत्मज्ञानको ही जीवनका सर्वोच्चसाध्य समझना था वहाँ बुद्धने इस आत्मदर्शनको ही सर्वानर्थमल माना । आत्मदृष्टि या सत्त्वदृष्टिको ही बुद्धने मिथ्यादष्टि कहा और नै राम्यदर्शनको दुःखनिरोधका प्रधान हेतु बताया। यह औपनिषद तत्त्वज्ञानकी ओट में जो याज्ञिक क्रियाकाण्डको प्रश्रय दिया जा रहा था उसीकी प्रतिक्रिया थी जो बद्धको आत्म शब्दसे ही चिढ़ हो गई थी। स्थिरात्मवादको उनने राग और द्वेषका कारण समझा, जब कि औपनिषदवादी आत्मदर्शनको विरागका कारण मानते थे । बुद्ध और औपनिषदवादी दोनों ही राग द्वेष और मोहका अभावकर वीतरागता और वासनानिर्मुक्तिको ही अपना लक्ष्य मानते थे पर साधन दोनोंके जुदा जुदा थे और इतने जुदे कि एक जिसे मोक्षका कारण मानता था दूसरा उसे संसारका मूल कारण । इसका एक कारण और भी था और वह था बुद्धका दार्शनिक मानस न होना । बुद्ध एसे गोलगोल शब्दोंको बिलकुल हटा देना चाहते थे जिनका निर्णय न हो मके या जिनकी ओट में भ्रान्त धारणाओंकी सष्टि होती हो । 'आत्मा' उन्हें ऐसा ही मालूम हुआ। पर वेदवादियोंका तो यही मल आधार था । बुद्ध की नैरात्म्यभावनाका उद्देश्य बोधिचर्यावतारमें इस प्रकार बताया है “यतस्ततो वाऽस्तु भयं यद्यहं नाम किञ्चन । अहमेव यदा न स्यां कुतो भोतिर्भविष्यति ॥" अर्थात-यदि 'मैं' नामका कोई पदार्थ होता तो उसे इससे या उससे भय हो सकता था पर जब 'मैं ही नहीं है तब भय किसे होगा? बुद्ध जिस प्रकार भौतिकवादरूपी एक अन्तको खतरा समझते थे तो इस शाश्वत आत्मवाद रूपी दुसरे अन्तको भी उमी तरह खतरा मानते थे और इसलिए उनने इस आत्मवादको 'अव्यात अर्थात् अनेकांशिक प्रश्न कहा । तथा भिक्षुओंको स्पष्टरूपसे कह दिया कि इस आत्मवादके विषयमें कुछ भी कहना या गुनना न बोधिके लिए न ब्रह्मचर्य के लिए और न निर्वाणके लिए ही उपयोगी है। निगंठनाथपत्त महावीर भी वैदिक क्रियाकाण्डको उतना ही निरर्थक और श्रेयःप्रतिरोधी मानते थे जितना कि बुद्ध, और आचार अर्थात् चरित्रको ही वे मोक्षका अन्तिम साधन मानते थे। पर उनने यह साक्षात् अनुभव किया कि जबतक विश्वव्यवस्था और खासकर उस आत्माके स्वरूपके संबंधमें शिष्य निश्चित विचार नहीं बना लेता है जिस आत्माको दुःख होता है और जिसे दुःखकी निवृत्ति करके निर्वाण पाना है तबतक वह मानसविचिकित्सासे मुक्त होकर साधना कर ही नहीं सकता। जब बाह्य जगत्के प्रत्येक झोकेमें यह आवाज गंज रही हो कि "आत्मा देहरूप है या देहसे भिन्न ? परलोक क्या है ? निर्वाण क्या है ?''और अन्यतीर्थिक अपना मत प्रचारित कर रहे हों, इमीको लेकर वाद रोपे जाते हों उस समय शिष्योंको यह कहकर तत्काल चुप तो किया जा सकता है कि 'क्या रखा है इस विवादसे कि आत्मा क्या है, हमें तो दुःख निवृत्ति के लिए प्रयास करना चाहिए' परन्तु उनकी मानसशल्य और बुद्धिविचिकित्सा नहीं निकल सकती और वे इस बौद्धिकहीनता और विचारदीनताके हीनतर भावोंसे अपने चित्तकी रक्षा नहीं कर सकते । संघमें इन्हीं अन्यतीथिकोंक शिष्य और खासकर वैदिक ब्राह्मण भी दीक्षित होते थे। जब ये सब पंचमेल व्यक्ति जो मूल आत्माके विषय में १ "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो विदध्यासितव्यः ।" बृहदा०४।५।६। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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