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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना १३ होनेपरभी उनका अत्यंत विनाश नहीं हो सकता । पर कोई भी पदार्थ दो क्षणतक एक पर्याय नहीं रहता, प्रतिक्षण नूतन पर्याय उत्पन्न होती है पूर्व पर्याय विनष्ट होती है पर उस मौलिक तत्त्वका आत्यन्तिक उच्छेद नहीं होता, उसकी धारा प्रवाहित रहती है । चित्तसन्तति निर्वाणावस्था में शुद्ध हो जाती है पर दीपककी तरह बुझकर अस्तित्वविहीन नहीं होती । रूपान्तर तो हो सकता है पदार्थान्तर नहीं और न अपदार्थ ही या पदार्थविलय ही । इस संसार में अनन्त चेतन आत्माएँ अनन्त पुद्गल परमाणु, एक आकाश द्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालपरमाणु इतने मौलिक द्रव्य हैं। इनकी संख्या में कमी नहीं हो सकती और न एक भी नूतन द्रव्य उत्पन्न होकर इनकी संख्या में एककी भी वृद्धि कर सकता है। प्रतिक्षण परिवर्तन प्रत्येक द्रव्यका होता रहता है उसे कोई नहीं रोक सकता, यह उसका स्वभाव है । महावीरकी जो मातृकात्रिपदी समस्त द्वादशांगका आधार बनी, वह यह है- “उप्पन्ने वा विगमेइ वा धुवे वा" अर्थात् प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है, विनष्ट होता है, और ध्रुव है । उत्पाद और विनाशसे पदार्थ रूपान्तरको प्राप्त होता है पर ध्रुवसे अपना मौलिक अस्तित्व नहीं खोता । जगत्से किसी भी 'सत्' का समूल विनाश नहीं होता । इतनी ही ध्रुवता है। इसमें न कूटस्थनित्यत्व जैसे शाश्वतवादका प्रसंग है और न सर्वथा उच्छेदवादका हो । मूलतः प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्यय और प्रौव्यरूप है । उसमें यही अनेकांशता या अनेकान्ता या अनेकधर्मात्मकता है। इसके प्रतिपादन के लिए महावीरने एक खास प्रकारकी भाषाशैली बनाई थी 1 उस भाषाशैलीका नाम स्याद्वाद है । अर्थात् अमुक निश्चित अपेक्षासे वस्तु ध्रुव है और अमुक निश्चित अपेक्षासे उत्पादव्ययवाली । अपने मौलिक सत्त्वसे च्युत न होनेके कारण उसे ध्रुव कहते हैं तथा प्रतिक्षण रूपान्तर होने के कारण उत्पादव्ययवाली या अध्रुव कहते हैं । ध्रुव कहते समय अध्रुव अंशका लोप नहो जाय और अध्रुव कहते समय ध्रुव अंश का उच्छेद न समझा जाय इसलिए 'सिया'या 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना चाहिए । अर्थात् 'स्यात् है इसका अर्थ है कि अपने मौलिक अस्तित्वकी अपेक्षा वस्तु ध्रुव है, पर ध्रुवमात्रही नहीं है इसमें ध्रुवके सिवाय अन्य धर्म भी हैं इसकी सूचनाके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग आवश्यक है । इसी तरह रूपान्तरकी दृष्टि वस्तु अवत्व ही है पर वस्तु अध्रुवमात्र ही नहीं है उसमें अद्भुत के सिवाय अन्य धर्म भी विद्यमान है इसकी सूचना 'स्यात्' पद देता है। तात्पर्य यह कि 'स्यात्' शब्द वस्तुमें विद्यमान अविवक्षित शेष धर्मों की सूचना देता है । बुद्ध जिस भाषाके सहजप्रकारको नहीं पा सके या प्रयोगमें नहीं लाये और जिसके कारण उन्हें अनेकांशिक प्रश्नोंको अव्याकृत कहना पड़ा उस भाषा के सहज प्रकारको महावीरने दृढ़ता के साथ व्यवहारमें लिया । पाली साहित्य में 'स्यात्' 'सिया' शब्दका प्रयोग इसी निश्चित प्रकारकी सूचना के लिए हुआ है । यथा मज्झिमनिकायके महाराहुलोवादसुत्तमें आपोधातुका वर्णन करते हुए लिखा है कि- "कतमा च राहुल आपोश ? आपोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा ।" अर्थात् आपोवातु कितने प्रकारकी है । एक आभ्यन्तर और दूसरी बाह्य । यहां आभ्यन्तर धातुके साथ 'सिया' - स्याद् शब्दका प्रयोग आपोधातुके आभ्यन्तरके सिवाय द्वितीय प्रकारकी सूचनाके लिए है। इसी तरह बाह्यके साथ 'सिया' शब्दका प्रयोग बाह्य के सिवाय आभ्यन्तर भेदकी सूचना देता है । तात्पर्य यह कि न तो तेजोधातु बाह्यरूप ही है और न आभ्यन्तर रूप ही । इस उभयरूपताकी सूचना 'सिया- स्यात्' शब्द देता है । यहाँ न तो स्यात् शब्दका शायद अर्थ है और न संभवतः और न कदाचित् ही, क्योंकि तेजो धातु शायद आभ्यन्तर और शायद बाह्य नहीं है और न संभवतः आभ्यन्तर और बाह्य और न कदाचित् आभ्यन्तर और कदाचित् बाह्य, किन्तु सुनिश्चित रूपसे आभ्यन्तर और बाह्य उभय अंशवाली है। इसी तरह महावीरने प्रत्येक धर्म के साथ 'सिया- स्यात् ' शब्द जोड़कर अविशेष धर्मोकी सूचना दी है । 'स्यात्' शब्दको शायद संभव या कदाचित्का पर्यायवाची कहना नितान्त भ्रमपूर्ण है । महावीरने वस्तुतत्त्वको अनन्तधर्मात्मक देखा और जाना । प्रत्येक पदार्थ अनन्त ही गुण पर्यायोंका अखण्ड आधार है । उसका विराट् रूप पूर्णतया ज्ञानका विषय हो भी जाय पर शब्दोंके द्वारा तो नहीं ही कहा For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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