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तात्त्विक भेद नहीं है। क्योंकि जितने भी विवादस्थ सूत्र है उन्हें दोनों 'परम्पराओं ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ नौवें अध्याय के २२ परीषहवाले सूत्र को और इसी अध्याय के केवली के ११ परीषहों का सद्भाव बतलानेवाले सूत्र को दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं। इसलिये तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रभेद या पाठभेद का कारण सम्प्रदाय भेद न होकर रुचिभेद या आधारभेद रहा है ऐसा ज्ञात होता है। थोड़ा बहुत यदि मान्यताभेद है भी तो भी उसका मुख्य कारगा साम्प्रदायिकता नहीं है इतना स्पष्ट है।
दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के भेद का मुख्य कारण मुनि के वस्त्र का स्वीकार और अस्वीकार ही रहा है। दिगम्बरों की मान्यता है कि पूर्ण स्वावलम्बन को दीक्षा का नाम ही मुनि दीक्षा है, इसलिये वस्त्र को स्वीकार कर कोई भी व्यक्ति साधु नहीं बन सकता। स्त्री के शरीर की रचना ऐसी होती है जिससे वह वस्त्र का त्याग नहीं कर सकती और न एकाकिनी होकर वह विहार ही कर सकती है। इसीसे दिगम्बर परम्परा में उसे साध्वी दीक्षा के अयोग्य माना गया है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परः इस व्यवस्था का तात्त्विक पहलू नहीं देखती । इन दोनों परम्पराओं में मतभेद का कारण इतना ही है बाकी की सब बातें गौण हैं । उनका आधार साम्प्रदायिकता नहीं है।
कर्ता विषयक मतभेद प्रकृत में देखना यह है कि तत्त्वार्थसूत्र किस की रचना है। साधारणतः दोनों परम्पराओं के साहित्य का आलोढन करने से ज्ञात होता है कि इस विषय में मुख्य रूप से चार उल्लेख पाये जाते हैं। प्रथम उल्लेख तत्त्वार्थाधिगम भाष्य का है। इसके अन्त में एक प्रशस्ति दी है जिसमें इसके कर्ता रूप से वाचक उमास्वाति का उल्लेख किया गया है। प्रशस्ति इस प्रकार है