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________________ तत्त्वार्थसूत्र [१. ९. शंका-तत्त्वतः सम्यग्ज्ञान का लक्षण जो वस्तु को यथावत् जाने वह सम्यग्ज्ञान; ऐसा होना चाहिये। पर प्रकृत में उसका ऐसा लक्षण न करके सम्यक्त्व सहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा है सो क्यों ? समाधान--- व्यबहार में या न्यायशास्त्र में जैसे विषय की दृष्टि से ज्ञान की प्रमाणता और अप्रसारणता का निश्चय किया जाता है, अर्थात जो ज्ञान घड़े को घड़ा जानता है वह प्रमाणज्ञान माना जाता है और जो ज्ञान वस्तु को वैसा नहीं जानता है वह अप्रमाण ज्ञान माना जाता है। वैसे ही अध्यात्म शास्त्र में जिसे आत्मविवेक प्राप्त है उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान माना गया है और जिसे आत्मविवेक नहीं प्राप्त है उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान माना गया है। अध्यात्म शास्त्र में बाह्य वस्तु के जानने और न जानने के आधार से सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान का विचार नहीं किया जाता, क्योंकि यह ज्ञान ज्ञान के बाह्य साधनों पर अवलम्बित है। पर वाह्य वस्तु के होनाधिक या विपरीत जानने मात्र से सम्यक्त्वी का अध्यात्मदृष्टि से कुछ भी बिगाड़ नहीं होता; उसका वास्तविक विगाड़ तो तब हो जब वह आत्मविवेक को ही खो बैठे। पर सम्यक्त्व के रहते हुए ऐसा होता नहीं, वह सदा ही वासनाओं से छुटकारा पाने और आत्मिक उन्नति करने के लिए छटपटाता रहता है । इसी कारण से सम्यक्त्वी के ज्ञान मात्र को सम्यग्ज्ञान कहा है। __ऐसे सम्यग्ज्ञान पाँच हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । प्रत्येक आत्मा का स्वभाव ज्ञान है और वह किसी भी प्रकार की अपेक्षा से रहित है, इसलिए केवलज्ञान कहलाता है। किन्तु संसारी आत्मा अनादि काल से कर्म-बन्धन से बद्ध होने के कारण उसका वह केवलज्ञान घातित हो रहा है और इस घात के परिणामस्वरूप ही ज्ञान के उक्त पाँच भेद हो जाते हैं। इन
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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