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________________ तत्त्वार्थसूत्र [ १. ७. ८. का अधिकरण जीव ही है। ५ स्थिति-औपशामिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहत है। संसारी जीव के क्षायिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति आट वर्ष अन्तर्मुहर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। यद्यपि क्षायिक सम्यग्दर्शन सादि अनन्त है पर यहाँ उसकी स्थिति उसके धारक जीव के संसार में रहने की अपेक्षा से बतलाई है। क्षायोप शमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागर है। ६ विधान-सामान्य से सम्यग्दर्शन एक है, निसगेज और अधिमगज के भेद से दो प्रकारका है। औपशमिक आदि के भेद से तीन प्रकारका है। शब्दों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के संख्यात भेद हैं, श्रद्धान करनेवालों की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं, और श्रद्धान करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा अनन्त भेद हैं। जैसा कि पहले लिख आये हैं आगम में सत् संख्या आदि आठ अरूपणाओं का कथन सामान्य से या गुणस्थान और मार्गणाओं की अपेक्षा से किया जाता है। यहाँ इन सब की अपेक्षा कथन करने से विषय बढ़ जाता है इसलिये सामान्य से निर्देश किया जाता है। विशेष जानकारी के लिये सर्वार्थसिद्धि देखें। . १ सत्-सम्यत्व आत्मा का गुण है इसलिये वह सब जीवों के पाया जाता है पर वह भव्य जीवों में ही प्रकट होता है। २ संख्या-सम्यग्दृष्टि कितने हैं इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन की संख्या बतलाई जाती है। संसार में सम्यग्दृष्टि पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और मुक्त सम्यग्दृष्टि अनन्त हैं। __३ क्षेत्र-सम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र में 'पाये जाते हैं, इसलिये सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग हुआ। पर केवलिसमुद्धात के समय यह जीव सब लोक को भी व्याप्त कर लेता है, इसलिये सम्यग्दर्शन का सर्वलोक क्षेत्र भी प्राप्त होता है ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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