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________________ १४ तत्त्वार्थसूत्र . [१. ६. कहलाता है और जब जब उसमें धर्म-धर्मी का भेद होकर धर्म द्वारा वन्तु का ज्ञान होता है तब तब वह नयज्ञान कहलाता है। इसी कारण से नयों को श्रुतज्ञान का भेद बतलाया है। उदाहरणार्थ 'जीव है। ऐसा मनका विकल्प प्रमाणज्ञान है। यद्यपि जीवका व्युत्पत्त्यर्थ 'जो जीता है वह जीव' इस प्रकार होता है तथापि जिस समय 'जीव है? यह विकल्प मनमें आया उस समय उस विकल्पद्वारा 'जो चेतनादि अनन्त गुणों का पिण्ड है' वह पदार्थ समझा गया इस लिये यह ज्ञान प्रमाणज्ञान ही हुआ। तथा नित्यत्व धर्म द्वारा 'आत्मा नित्य है' ऐसा मन का विकल्प नयज्ञान है क्योंकि यहाँ धर्म-धर्मी का भेद होकर एक धर्म द्वारा धर्मा का बोध हुआ। आशय यह है कि इन्द्रिय और मनकी सहायता से या इन्द्रिय और मनकी सहायता के बिना जो पदार्थ का ज्ञान होता है वह सबका सब प्रमाणज्ञान है किन्तु उसके बाद उस पदार्थ के विषय में उसकी विविध अवस्थाओं की अपेक्षा क्रमशः जो विविध मानसिक विकल्प होते हैं वे सब नयज्ञान हैं। प्रमाण को जो सकलादेशी और नय को जो विकलादेशी कहा है उसका यही भाव है। इस प्रकार प्रमाण और नयों से पदार्थों का ज्ञान होता है यह निश्चित होता है । ६॥ तत्वों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ अनुयोगद्वारों का निर्देश निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥ ७॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥८॥ निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण स्थिति और विधान से। तथा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुंत्व से सम्यग्दर्शन आदि का ज्ञान होता है। यदि किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना हो या ज्ञान कराना हो तो इसके लिये १-उस वस्तु का नाम क्या है, २-उसका स्वामी कौन
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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