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________________ तत्वार्थ सूत्र [ ९.४६. ४४८ के सबसे कम और जिनके सबसे अधिक कर्मों की निर्जरा होती हूँ । निर्जरा का यह तरतम भाव जिन दस अवस्थाओं में पाया जाता है. उनका स्वरूप निम्न प्रकार है १ जो दर्शनमोह का उपशम कर सम्यक्त्व को प्राप्त होता है वह सम्यग्दृष्टि है । २ जो विरताविरत नामक पाँचवें गुणस्थान को प्राप्त है - यह श्रावक है । ३ जो सर्वविरति को प्राप्त है वह विरत है । ४ जो अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर रहा है वह अनन्त वियोजक है । ५ जो दर्शनमोह की क्षपणा कर रहा है वह दर्शनमोहक्षपक है । ६ उपशमश्रण पर आरूढ़ प्राणी उपशमक कहलाता है । ७ उपशान्तमोह गुणस्थान को प्राप्त जीव उपशान्तमोह कहलाता है । ८ क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ प्राणी क्षपक कहलाता है । ६ क्षीणमोह गुपस्थान को प्राप्त जीव क्षीणमोह कहलाता है । १० और जिसमें सर्वज्ञता प्रकट हो चुकी हो बह जिन कहलाता है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि के सिवा शेष नौ स्थानों में अपने पूर्व पूर्व स्थान से असंख्यातगुणी निर्जरा का क्रम बन जाता है पर सम्यग्दृष्टि के किससे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है यह सूत्र में नहीं बतलाया है. फिर भी यह दर्शनमोह की उपशामना का प्रारम्भ करनेवाले जीव की - होनेवाली निर्जरा की अपेक्षा जानना चाहिये । आशय यह है कि - दर्शनमोह की उपशमना का प्रारम्भ करनेवाले जीव के जितनी कर्म निर्जरा होती है उससे असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा सम्यग्द्रष्टि के होती है ॥ ४५ ॥ निर्ग्रन्थ के भेद- पुलाकवकुशकुशील निर्ग्रन्थस्नातकाः निर्ग्रन्थाः || ४६ ॥ पुलाक, वकुश, कुशील, निर्मन्थ और स्नातक ये पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थ हैं । उपधि या ग्रन्थ ये एकार्थवाची शब्द हैं। व्युत्सर्ग तप का वर्णन
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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