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________________ ९. ३७-४४] शुक्लध्यान का निरूपण ४४५ रूप अर्थ पर, एक पर्यायरूप अर्थ पर से दूसरे पर्यायरूप अर्थ पर या एक पर्यायरूप अर्थ पर से किसी एक द्रव्यरूप अथे पर ज्ञानाधारा को संक्रमित करके चिन्तवन के लिये प्रवृत्त होता है। इसी प्रकार कभी अर्थ पर से शब्द पर और शब्द पर से अर्थे पर या किसी एक शब्द पर से दूसरे शब्द पर चिन्तवन के लिये प्रवृत्त होता है। तथा ऐसा करता हुआ यह कभी मनोयोग आदि तीन में से किसी एक योग का आलम्बन लेता है, और फिर उसे छोड़ कर अन्य योग का आलम्बन लेता है तब उसके होनेवाला वह ध्यान पृथक्त्ववितकबोचार कहलाता है। तात्पर्य यह है कि इस ध्यान में वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान का आलम्बन लेकर विविध दृष्टियों से विचार किया जाता है इसलिये तो यह पृथक्त्ववित हुआ और इसमें अर्थ, व्यंजन तथा योग का संक्रमण होता रहता है इसलिये यह वीचार हुआ; इस प्रकार इस ध्यान का पूरा नाम पृथक्त्ववितकेवीचार पड़ा है। इस ध्यान द्वारा यह जीव मुख्य रूपसे चारित्र मोहनीय का या तो उपशमन करता है या क्षपण और इस बीच में अन्य प्रकृत्तियों का भी क्षपण करता है। तथा जब उक्त जीव क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त होकर वितर्क अर्थात् श्रुत के आधार से किसी एक द्रव्य या पर्याय का ही चिन्तवन न करता है और ऐसा करते हुए वह जिस द्रव्य, पर्याय, शब्द या योग का अवलम्बन लिये रहता है, उसे प्रवीचार - नहीं बदलता है तब उक्त ध्यान एकत्ववितकेवीचार कहलाता है। इस ध्यान द्वारा यह जीव घातिकमे की शेप प्रकृतियों का क्षपण कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। शंका-जब कि पृथक्त्व का अर्थ विविधता है और वीचार का अर्थ संक्रमण तब इन दोनों शब्दों को रखने की कोई आवश्यकता नहीं है । इसी तरह एकत्व और अवीचार इन दो शब्दों को रखने को एकत्ववितके
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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