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६. ३७-४४] शुक्लध्यान का निरूपण
पहले के दो एक आश्रयवाले सवितर्क और सवीचार होते हैं। दूसरा ध्यान अवीचार है। वितर्क का अर्थ श्रुत है। अर्थ, व्यञ्जन और योग को संक्रान्ति वीचार है।
इन सूत्रों में शुक्ल ध्यान का वर्णन करते हुए उसके स्वामी, भेद और स्वरूप इन तीन बातों पर प्रकाश डाला गया है। ३९ वे सूत्र में शुक्ल ध्यान के चार भेद बतलाये हैं । उनका स्वामी
किस पात्रता का जीव होता है और कौन योग के स्वामी
रहते हए वे ध्यान होते हैं इस प्रकार यहां स्वामी का कथन दो प्रकार से किया गया है। पात्रता की दृष्टि से विचार करते हुए बतलाया है कि जो पूर्वधर हों उनके प्रारम्भ के दो शुक्लध्यान होते हैं और केवली के अन्त के दो शुक्ल भ्यान होते हैं। यहां पूर्वधर के आदि के दो शुक्ल ध्यान होते हैं ऐसा कथन करने से सभी पूर्वधरों के शुक्ल ध्यान प्राप्त हुआ किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि श्रेणी पर आरोहण करने के पूर्व धम्यध्यान होता है और श्रेणी में शुक्लध्यान होता है, इसलिये यहां ऐसे ही पूर्वधर लेने चाहिये जो उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में स्थित हों। इसमें भी शुक्लध्यान का पहला भेद उपशम श्रेणि के सब गुणस्थानों में और क्षपक श्रेणि के दसवें गुणस्थान तक होता है तथा दूसरा भेद बारहवें गुणस्थान में होता है। इसी प्रकार शुक्लध्यान का तीसरा भेद सयोगकेवली के और चौथा भेद अयोगकेवली के होता है।
योग की अपेक्षा तीनों योगवाला प्रथम ध्यान का स्वामी है। अर्थात् प्रथम ध्यान के रहते हुए योग बदल सकता है। दूसरा योग तीन योगों में से किसी एक योगवाले के होता है। तीसरा ध्यान सिर्फ काययोगवाले के और चौथा ध्यान अयोगी के होता है।