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________________ ९.८-१७.] परीषहों का वर्णन ४२७ जिसमें साम्पराय-लोभ कषाय अति सूक्ष्म पाया जाता है ऐसे सूक्ष्मसाम्परायिक गुण स्थान में तथा छद्मस्थवीतराग अर्थात् उपशान्त मोह और क्षीणमोह गुणस्थान में चौदह ही परीषह स्वामी सम्भव हैं। वे ये हैं सुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान । मोहनीय के निमित्त से होनेवाली बाकी की आठ परीषह इन गुणस्थानों में नहीं होती। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में मोहनीय का उदय नहीं होता इसलिये मोहनीय निमित्तक आठ परीषहों का वहाँ न होना सम्भव भी है तथापि दसवें गुणस्थान में इनका अभाव बतलाने का कारण यह है कि इस गुणस्थान में जो केवल सूक्ष्म लोभ का उदय होता है वह अति सूक्ष्म होता है, इसलिये इस गुणस्थानवी जीवों को भी वीतरागछमस्थ के समान मान कर यहाँ मोह निमित्तक परीषहों का सद्भाव नहीं बतलाया है। शंका-ये दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान तो ध्यान के हैं इनमें क्षुधादि जन्य वेदना ही सम्भव नहीं है, दूसरे यहाँ मोहनीय के उदय की सहायता भी नहीं है या है भी तो अति मन्द है, इसलिये इनमें सुधादि परीषहों का भी होना सम्भव नहीं है ? समाधान-यह सही है कि इन गुणस्थानों में क्षुधादि परीषह नहीं पाये जाते तथापि जैसे शक्तिमात्र की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि के देव में सातवीं पृथवी तक जाने की योग्यता मानी जाती है वैसे ही यहाँ भी परिषहों के कारण विद्यमान होने से उनका सत्त्व बतलाया है ॥१०॥ जिन अर्थात् सयोगकेवली और अयोगकेवली के केवल ग्यारह परीषह ही सम्भव हैं। वे ये हैं-सुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पशे और मल । केवलीजिनके चिन्ता ही नहीं है तो भी ध्यान का फल कर्मों के क्षय की अपेक्षा जैसे वहाँ ध्यान का उपचार किया जाता है वैसे ही वेदनीय कर्म के उदयमात्र
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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