________________
९.७.]
अनुप्रेक्षा के भेद इस प्रकार चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से इन्द्रिय आदिक आस्रवों से निवृत्ति होकर क्षमा आदि में प्रवृत्तिः होती है जिससे यह आत्मा आत्मकल्याण के लिये यत्न करता है।
संवर आस्रव का विरोधी है। उत्तम क्षमा आदि संवर के उपाय हैं। इन्हें अपने जीवन में उतार लेने पर जीव को अधिक दिन तक
संसार में नहीं भटकना पड़ता है। संवर के बिना अपर आत्मशुद्धि होना कठिन है, इस प्रकार से चिन्तवन करना संवरानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से इसकी संवर और संवर के कारणों में आस्था उत्पन्न होती है। __ फल देकर कर्मों का झरना निर्जरा है। यह दो प्रकार की हैअबुद्धिपूर्वक और कुशलमूला । जो विविध गतियों में फल काल के
प्राप्त होने पर निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वक निजराना निर्जरा है। यह सब प्राणियों के होती है। किन्तु तपश्चर्या के निमित्त से फल काल के बिना प्राप्त हुए स्वोदय या परोदय से जो कर्मोंकी निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है। इसमें निर्जरा का यह दूसरा भेद ही कार्यकारी है। इस प्रकार निर्जरा के गुण दोष का विचार करना निजेरानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करने से जीव की प्रवृत्ति तपश्चर्या की ओर होती है। लोक के स्वभाव का चिन्तवन करना कि यद्यपि लोक अनादि निधन
और अकृत्रिम है तो भी इसमें स्थित प्राणो नाना लोकानप्रदा दुःख उठा रहे हैं लोकानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है।
जैसे समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता का मिलना दुर्लभ है वैसे ही एकन्द्रिय से त्रसपर्याय का मिलना दुर्लभ है। यदि त्रसपर्याय भी बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा
... मिल गई तो उसमें पंचेन्द्रियत्व का प्राप्त होना को इतना ही कठिन है जितना कि चौपथ पर रत्नों की