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________________ ६. ७.] अनुप्रेक्षा के भेद ४१६ जितना संचित किया जाय पर मरण से वह भी नहीं बचा सकता। जिवलग मित्र तो जाने दीजिये इन्द्र भी आकर इसको मरने से नहीं बचा सकता। तत्त्वतः जग में धर्म के सिवा इसका और कोई शरणभूत नहीं है। इस प्रकार चिन्तवन करना अशरणानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से संसार से ममता छूटकर धर्म में आस्था उत्पन्न होती है। यह प्राणी जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ जिसका कभी पिता रहा है उसी का भाई, पुत्र या पौत्र हो जाता है। इसी . प्रकार माता होकर बहिन, स्त्री या लड़की हो जाता सतारानुभक्षा है, बहुत अधिक कहने से क्या कभी कभी तो स्वयं अपना पुत्र भी हो जाता है। संसार का यही स्वभाव है। इसमें कौन स्वजन है और कौन परिजन है इसका कोई भेद नहीं है। व्यर्थ ही मोहवश यह प्राणी स्वजन परिजन की कल्पना किया करता है। इस प्रकार का चिन्तवन करना संसारानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से संसार से वैराग्य पैदा होकर यह प्राणी संसार के नाश के लिये उद्यत होता है। ___ मैं अकेला हो जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ। स्वजन या परिजन ऐसा कोई नहीं जो मेरे दुःखों को हर सके। कोई भाई व बनता है तो कोई मित्र, पर वे सब स्मशान तक ही एकत्वानुमा साथी हैं। एक धर्म ही ऐसा है जो सदा साथ देता है । ऐसा चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से स्वजनों में प्रीति और परजनों में द्वष नहीं होकर केवल वह अकेलेपन का अनुभव करता हुआ मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है। शरीर जड़ है, मैं चेतन हूँ, शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ, संसार
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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