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________________ ३६६ ८. २४.] प्रदेशबन्धका वर्णन स्वीकार किये गये हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों का सद्भाव इसी रूप से स्वीकार किया गया है। और दूसरे के जो प्रत्येक कार्य के अलग-अलग निमित्त होते हैं। जैसे घट पर्याय को उत्पत्ति में कुम्हार निमित्त है और जीव को अशुद्धता का निमित्त कर्म है आदि । जब तक जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध है तभी तक ये. राग, द्वेष और मोह आदि भाव होते हैं। कर्म के अभाव में नहीं । इसी से संसार का मुख्य कारण कर्म कहा जाता है। घर, पुत्र, स्त्री.. और धन आदि का नाम संसार नहीं है। वह तो जीव की अशुद्धता है जो कर्म के सद्भाव में ही पाई जाती है। कर्म का और संसार का अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध है। यदि इनकी समव्याप्ति मानी जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी। जब तक यह सम्बन्ध बना रहता है तब तक जीव परतन्त्र है। ____ कर्म का अर्थ क्रिया है। क्रिया अनेक प्रकार की होती है। हुसना खेलना, कूदना, उठना, बैठना, रोना, गाना, जाना, याना, खाना, पीना आदि ये सब क्रियायें हैं। क्रिया..जड़ और. कर्म का स्वरूा चेतन दोनों में होती है। कर्म का सम्बन्ध, आत्मा से होने के कारण यहाँ केवल जड़ को किया नहीं ली गई है। और शुद्ध जीव निष्क्रिय है। वह सदा ही आकाश के समान निर्लेप और भित्ती में उकीरे गये चित्र के समान निष्प रहता है। क्रिया का मतलब यहाँ उत्पाद व्यय ध्रौव्य से नहीं है। किन्तु यहाँ क्रिया का अर्थ परिस्पन्द लिया गया है। परिस्पन्दात्मक कियां सजा पदार्थों में नहीं होती । वह पुद्गल और संसारी जीव में हो पाई जाती है, इसलिये प्रकृत में कर्म का अर्थ संसारी जीव की क्रिया लिया गया है । आशय यह है कि संसारी जीव की प्रति समय परिस्पन्दात्मक जी भी क्रिया होती है वह कर्म कहलाता है। यद्यपि कर्म का मुख्य अर्थ यही है तथापि इसके मिसिन से जो २६
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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