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________________ ३९४ तत्त्वार्थसूत्र [ ८. २१-२३. उत्कृष्ट स्थिति में से जघन्य स्थिति के घटा देने पर जो शेष रहे उसमें से एक और कम कर देने पर जितने समय प्राप्त हों उतने मध्यम स्थिति बन्ध के भेद होते हैं और घटाकर शेष रही संख्या में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के दो समय मिला देने पर कुल स्थितिबन्ध के विकल्प होते हैं ।। १४-२० ।। अनुभागबन्ध का वर्णन विपाकोऽनुभवः ॥ २१ ॥ स यथानाम || २२ ॥ ततश्च निर्जरा ॥ २३ ॥ fare अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति का पड़ना ही अनुभव है । वह जिस कर्म का जैसा नाम है उसके अनुसार होता है । और उसके बाद अर्थात् फल मिल जाने के बाद निर्जरा होती है । कर्मबन्ध के समय जिस जीव के कषाय की जैसी तीव्रता या मन्दता रहती है और उसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप जैसा निमित्त मिलता है उसके अनुसार उस कर्म में फल देने की शक्ति पड़ती है । उसमें भी कर्मबन्ध के समय यदि शुभ परिणाम होते हैं तो पुण्य प्रकृतियों में प्रकृष्ट और पापप्रकृतियों में निकृष्ट फलदान शक्ति प्राप्त होती है । और यदि कर्मबन्ध के समय शुभ परिणामों की तीव्रता होती है तो पाप प्रकृतियों में प्रकृष्ट और पुण्य प्रकृतियों में निकृष्ट फलदान शक्ति प्राप्त होती है । 呜 अनुभव का कारण यद्यपि यह अनुभव अर्थात् फलदान शक्ति इस प्रकार प्राप्त होता " है तथापि उसकी प्रवृत्ति दो प्रकार से देखी जाती है--स्वमुख से और परमुख से । ज्ञानावरणादि आठों मूल प्रकृतियों में यह फलदान शक्ति स्वमुख से ही प्रवर्तती है और प्रवृत्ति उत्तर प्रकृतियों में स्वमुख से भी प्रवर्तती है और परमुख से भी प्रवर्तती है। विशेष खुलासा इस प्रकार है अनुभव की दिघा
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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