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तत्त्वार्थसूत्र
[८. १४-२०. चारित्र माना गया है । जो प्राणी अपने वर्तमान जीवन में चारित्रको स्वीकार करता है और जिसका सम्बन्ध भी ऐसे ही लोगोंसे होता है वह उच्चगोत्री है और इससे विपरीत नीचगोत्री है।॥ १२ ॥
१ जिस कर्मका उदय ज्ञानादि के दान करनेके भाव न होने देने में निमित्त है वह दानान्तराय कर्म है। २ जिस कर्मका उदय मुझे लाभ हुआ ऐसा भाव न होने देने में निमित्त है वह लाभाअन्तराय कर्म की
र न्तराय कर्म है। ३ जिस कर्मका उदय भोगरूप
व पांच प्रकृतियां
परिणामके न होने देने में निमित्त है वह भोगान्तराय
- कर्म है । ४ जिस कर्मका उदय उपभोगरूप परिणाम के न होने देनेमें निमित्त है वह उपभोगान्तराय कर्म है । और ५ जिसकर्मका उद्य आत्मवीर्य प्रकट न होने देने में निमित्त है वह वीर्यान्तराय कर्म है॥१३॥
स्थितिबन्धका वर्णनआदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ विंशतिनामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८ । नामगोत्रयोरष्टौ ॥१९॥ शेषाणामन्तमुहूर्ता ॥२०॥
आदि को तीन प्रकृतियां अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चारकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम है।