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________________ ३९२ तत्त्वार्थसूत्र [८. १४-२०. चारित्र माना गया है । जो प्राणी अपने वर्तमान जीवन में चारित्रको स्वीकार करता है और जिसका सम्बन्ध भी ऐसे ही लोगोंसे होता है वह उच्चगोत्री है और इससे विपरीत नीचगोत्री है।॥ १२ ॥ १ जिस कर्मका उदय ज्ञानादि के दान करनेके भाव न होने देने में निमित्त है वह दानान्तराय कर्म है। २ जिस कर्मका उदय मुझे लाभ हुआ ऐसा भाव न होने देने में निमित्त है वह लाभाअन्तराय कर्म की र न्तराय कर्म है। ३ जिस कर्मका उदय भोगरूप व पांच प्रकृतियां परिणामके न होने देने में निमित्त है वह भोगान्तराय - कर्म है । ४ जिस कर्मका उदय उपभोगरूप परिणाम के न होने देनेमें निमित्त है वह उपभोगान्तराय कर्म है । और ५ जिसकर्मका उद्य आत्मवीर्य प्रकट न होने देने में निमित्त है वह वीर्यान्तराय कर्म है॥१३॥ स्थितिबन्धका वर्णनआदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ विंशतिनामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥१८ । नामगोत्रयोरष्टौ ॥१९॥ शेषाणामन्तमुहूर्ता ॥२०॥ आदि को तीन प्रकृतियां अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चारकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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