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' तत्त्वार्थसूत्र [८.५-१३. ___ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान इनको आवरण करनेवाले कर्म ही पाँच ज्ञानावरण हैं। __ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चारों के चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पाँच निद्रादिक ऐसे नौ दर्शनावरण हैं।
सातावेदनीय और असातावेदनीय ये दो वेदनीय हैं।
दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकषायवेदनीय और कपायवेदनीय इनके क्रम से तीन, दो, नौ और सोलह भेद हैं । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व
और तदुभय ये तीन दर्शनमोहनीय हैं। अकषाय वेदनीय और कपाय वेदनीय ये दो चारित्रमोहनीय हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये नौ अकषायवेदनीय हैं तथा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये प्रत्येक क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से सोलह कषायवेदनीय हैं।
नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयु हैं । - गति, जाति, शरीर, प्राङ्गोपाङ्ग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास और विहायोगति तथा प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके साथ अर्थात् साधारणशरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और त्रस, दुभंग और सुभग, दुःस्वर और सुस्वर, अशुभ और 'शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय; अयशःकीर्ति और यशःकीर्ति एवं तीर्थकरत्व ये बयालीस नाम कर्मके भेद हैं।
उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये दो गोत्र कर्म हैं। · दान; लाभ, भोग उपभोग और वीर्य इनके पांच अन्तराय हैं।
मति आदि पांच ज्ञान और चक्षुदर्शन आदि चार दर्शनोंका वर्णन