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३७८ तत्त्वार्थसूत्र
[.८.४. शंका---गुण का घात करना यह घातिकर्म का काम है। फिर क्या कारण है कि यहाँ अव्याबाध गुण का घातक वेदनीय कर्म को बतलाया है ?
समाधान-जीव के गुणों का घात तो दोनों प्रकार के कर्म करते हैं। अन्तर इतना है कि घातिकर्म अनुजीवी गुणों का घात करते हैं और अधातिकर्म प्रतिजीवी गुणों का घात करते हैं।
शंका-फिर वेदनीय आदि को अघाति संज्ञा क्यों दी है ?
समाधान-ये जीव के अनुजीवी गुणों का घात नहीं करते इस अपेक्षा से इन्हें अघाति संज्ञा दी है। प्रतिजीवी गुणों को घातने की अपेक्षा तो वे भी घाती है। . शंका-यदि वेदनीय कर्म जीव के अव्याबाध गुण को घातता है तो उसका वहाँ कुछ कार्य भी तो दिखना चाहिये ?
समाधान यही कि पर्याय जन्य बाधा तो उनके भी पाई जाती है। पर वह बाधा अन्य जनों की स्थूल बाधा से विलक्षण होती है। पूर्ण बाधा का अभाव सिद्ध अवस्था के प्राप्त होने पर ही होता है। मात्र उनके अन्य बाह्य निमित्त से पैदा होनेवाली बाधा नहीं होती इतनी विशेषता है। क्षुधादि जन्य बाधा नैमित्तिक है ऐलो बाधा अरिहन्त जिनके नहीं होती यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
शंका-कर्मनिमित्तक जितनी भी अवस्थाएं प्रकट होती हैं वे सब नैमित्तिक हैं फिर केवल क्षुधादि जन्य बाधाओं को ही क्यों नैमित्तिक बतलाया है ?
समाधान-सुधा आदि बाधाएँ केवल कर्म के निमित्त से नहीं होती हैं। इनके होने में अन्य बाह्य पदार्थ भी निमित्त होते हैं। केवली के होनेवाली बाधा कर्मनिमित्तक तो होतो है पर अन्यनिमित्तक नहीं होती इससे ही यहाँ क्षुधादि बाधाओं को नैमित्तिक बतलाया है । ऐली बाधाएँ केवली जिनके नहीं होती ॥४॥