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________________ तत्त्वार्थसूत्र [७. २३. तक टिकतो नहीं और दूसरे जिसे यह अर्पण किया जाता है, उपकारक रूप से उसका सत्य जगत में कोई स्थान नहीं, इसलिये जलसमाधि आदि प्रकार मूलतः ही सदोष हैं ऐसा मान लेना चाहिये। ___ अन्तिम सूत्र का तात्पर्य यह है कि जब जीवन का निकट मालूम हो तभी धर्म और आवश्यक कर्तव्यों की रक्षा के लिये तथा बाह्य पदार्थों से ममता घटाने के लिये सल्लेखना व्रत लिया जाता है। इस व्रत को पालते हुए दुर्ध्यान न होने पावे इसका पूरा ध्यान रखना पड़ता है, क्योंकि दुर्ध्यान से मरना ही आत्मघात है किन्तु सल्लेखना व्रत आत्मघात से प्राणी की रक्षा करता है । २०-२२ सम्यग्दर्शन के अतिचारशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टे. रतीवाराः ॥ २३ ॥ ___ शंका, काक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचार हैं।। जिससे व्रत का नाश न होकर व्रत में दोष लगे अर्थात् जिस कारण से व्रत मलिन हो उसे अतीचार कहते हैं। ऐसा कोई गुण या व्रत नहीं जो सदाकाल एकसा उज्ज्वल बना रहे । बाह्य निमित्त और परिणामों की निर्मलता और अनिर्मलता के कारण गुण या व्रत में भी निर्मलता और अनिमलता उत्पन्न हुआ करती है। यहाँ उत्पन्न हुई यही अनिर्मलता ही अतीचार हैं। अतीचार का अर्थ है एकदेश व्रत का भंग। यहाँ सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन के अतीचार बतलाये हैं, क्योंकि इस गुण के सद्भाव में ही और सब व्रत नियमों का प्राप्त होना सम्भव है। वे अतीचार पाँच हैं जिनका खुलासा इस प्रकार है १-धर्म में दीक्षित होने के बाद उसके मूल आधार भूत सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में शंका करना कि 'इनका स्वरूप
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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