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________________ [ ३ ] विपय श्रुतज्ञान का स्वरूप और उसके भेद अवधिज्ञान के भेद और उनके स्वामी मन:पर्ययज्ञान के भेद और उनका अन्तर अवधि और मनः पर्यय का अन्तर पाँचों ज्ञानों के बिषय एक साथ एक आत्मा में कम से कम और अधिक से अधिक कितने ज्ञान सम्भव हैं इसका खुलासा मति आदि तीनों ज्ञानों की विपर्यता और उसमें हेतु नय के भेद नयनरूपण की पृष्ठभूमि अलग से नयनिरूपण की सार्थकता नयनरूपण की प्राणप्रतिष्ठा का कारण जैन दर्शन से अन्य दर्शनों में अन्तर नयका सामान्य लक्षण नयके मुख्य भेद और उनका स्वरूप नैगमादि नयाँका स्वरूप नैगमनय संग्रहनय व्यवहार नय ऋजसूत्र नय शब्दनय समभिरूढ़नय एवंभूतनय पूर्व-पूर्व नयों के विषय की महानता और उत्तर उत्तर नयों के विषय की अल्पता का समर्थन पृष्ठ ३७ ४२ ४६ ४८ ४९ ५१ ५४ ५६ १५७ ५८ ६१ ६२ ६२ ६३ ६५ ६५ ६७ ६७ ६८ ६५ ७० ७१ 199
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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