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________________ तत्त्वार्थसूत्र .कर प्रशंसा आदि द्वारा दृढ़ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है। ५-संयम का घात करनेवाले कर्मों का उदय होने से त्यागरूप प्रवृत्ति का न होना अप्रत्याख्यान क्रिया है। पाँच पाँच के हिसाब से ये पच्चीस क्रियायें हैं। ये सबकी सब कषाय मूलक होने से साम्परायिक आस्रव का कारण हैं। सम्यक्त्व क्रिया में भी प्रशस्त राग रहता है, अन्यथा चैत्यादिकी भक्ति, श्रद्धा और पूजा बन नहीं सकती है। मुनियों की ईर्यासमिति आदि जो पाँच समितियाँ बतलाई हैं वे सबकी सव प्रवृत्तिमूलक ही हैं। उन्हीं का ज्ञापन करने के लिये ईर्यापथ क्रिया का निर्देश किया है। इसमें भी बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति पाई जाती है जो प्रशस्त रागपूर्वक होती है, इसलिये यह भी साम्परायिक आस्रव का कारण है। यद्यपि ईर्यापथ कर्म के प्रास्त्रव का कारण योग भी ईर्यापथ क्रिया कहा जा सकता है, तथापि यहाँ साम्परायिक आस्रव के भेद गिनाये गये हैं, इसलिये ईर्यापथ क्रिया का पूर्वोक्त अर्थ करना ही उचित जान पड़ता है ।। ५॥ श्रासव के कारण समान होने पर भी परिणाम भेद से आसव में जो विशेषता भाती है उसका निर्देश• तीव्रमन्द ज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।।६।। तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य इनके भेद से उसकी अर्थात् प्रास्रव की विशेषता होती है। पिछले सूत्र में आस्रव के जो भेद बतलाये हैं उनमें इन तीव्रभाव, मन्दभाव, आदि के कारण और भी विशेषता आ जाती है । अर्थात् एक एक प्रास्रव का भेद इन तीव्रभाव आदि के कारण अनेक प्रकार का हो जाता है जिससे पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, पाँच अव्रत और पञ्चीस क्रिया इनमें से किसी एक एक कारण के रहने पर भी उससे होनेवाला कर्मबन्ध अनेक प्रकार का हो जाता है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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