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________________ २७३ है। जैसे लोक में जिस उद्देश्य से क्रिया को जाता है वह क्रिया उसी प्रकार की मानी जाती है। प्रशस्त उद्देश्य से की गई क्रिया प्रशस्त गिनी जाती है और अप्रशस्त उद्देश्य से की गई क्रिया अप्रशस्त गिनी जाती है, वैसे ही शुभ परिणामों से जो योग होता है वह शुभ योग है और अशुभ परिणामों से जो योग होता है वह अशुभ योग है। शंका-शुभ और अशुभ के भेद से कर्म दो प्रकार के बतलाये हैं। इनमें से जो शुभ कर्म के बन्ध का कारण हो वह शुभ योग है और जो अशुभ कर्म के बन्ध का कारण हो वह अशुभ योग है। यदि शुभयोग और अशुभयोग का यह अर्थ किया जाय तो क्या आपत्ति है ? ___ समाधान-बन्ध कार्य है ओर याग कारण है, इसलिये कार्य की अपेक्षा कारण में शुभत्व और अशुभत्व की कल्पना करना उचित नहीं है। तत्त्वतः योग में शुभत्व ओर अशुभत्व परिणामों की अपेक्षा प्राप्त होता है, इसलिये शुभ परिणामों से निवृत्त योग को शुभ कहा है और अशुभ परिणामों से निवृत्त योग को अशुभ कहा है। हिंसा, चोरी अब्रह्म आदि अशुभ काययोग है और द्या, दान, ब्रह्मचर्य आदि शुभ काययोग है। असत्य भाषण, कठोर भाषण, असभ्य प्रलाप आदि अशुभ वाग्योग है. और सत्य भाषण, मृदु भाषण सभ्य भाषण, आदि शुभ वाग्योग है। दूसरों के वध का चिन्तन करना, ईर्ष्या करना, डाइ करना आदि अशुभ मनोयोग है और दूसरों के रक्षा का चिन्तन करना, दूसरों के गुणोत्कर्ष में प्रसन्न होना आदि शुभ मनोयोग है। शंका-क्या शुभ योग से पुण्य कर्म का हो आस्रव होता है और अशुभ योग से पापकर्म का ही प्रास्रव होता है या इसमें कुछ विरोपता है ? ' समाधान-शुभ योग से पुण्य कर्म का ओर अशुभ योग से पाप कर्म का आस्रव होता है यह प्रधानता को अपेक्षा कथन किया है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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