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________________ ५. ३७.] बन्ध के समय होनेवाली अवस्था का निर्देश २६३ बन्ध के समय होनेवाली अवस्था का निर्देशबन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥ ३७॥ . बन्ध के समय दो अधिक शक्त्यंश दो हीन शक्त्यंश का परिणमन करानेवाले होते हैं। पुद्गलों का किस अवस्था में बन्ध होता है और किस अवस्था में बन्ध नहीं होता है इसका निर्देश कर देने पर प्रश्न होता है कि जिन रूक्ष और स्निग्ध शक्त्यंशवाले पुद्गलों का बन्ध होता है बन्ध के बाद उनकी वैसी स्थिति बनी रहती है या उनमें एकरूपता आ जाती है ? इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए यहाँ बतलाया गया है कि बन्ध के समय दो अधिक शक्त्यंशवाले पुदगल दो हीन शक्त्यंशवाले पुद्गल का परिणमन करानेवाले होते हैं। यह तो प्रत्यक्ष से ही दिखाई देता है कि जिस प्रकार गीला गड उस पर पड़ी हई धूलि को अपने रूप में परिणमा लेता है उसी प्रकार अन्य भी अधिक गणवाला पुदगल हीन गुणवाले पुद्गल का परिणमन करानेवाला होता है। इस प्रकार यद्यपि हीन शक्त्यंशवाला पुद्गल अधिक शक्त्यंशवाले पुद्गल रूप परिणम जाता है तथापि उनकी पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है इसलिये उन बँधे हुए पुद्गलों में एकरूपता आ जाती है । जिस प्रकार वस्त्र में शुक्ल और कृष्ण तन्तुओं का संयोग होता है ऐसा उनका संयोग नहीं होता किन्तु वे परस्पर में इस प्रकार मिल जाते हैं जिससे उनमें भेदकी प्रतीति नहीं होती॥ ३७॥ * श्वेताम्वर परम्परा में 'बन्धे समाधिको पारिणामिको' ऐसा सूत्र पाठ है । तदनुसार उसमें एक सम का दूसरे सम को अपने स्वरूप में मिलाने रूप अर्थ भी इष्ट है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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