________________
५. ३०.] सत् की व्याख्या
२४४ किन्तु उनकी यह जिज्ञासा यहीं समाप्त नहीं होती है। इसके आगे भी इसका क्रम चालू रहता है। तब एक नई जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि यदि ऐसी स्थिति है तो फिर जगत् में विषमता क्यों दिखलाई देती है। जब सबका कर्ता ईश्वर है तो उसने सबको एकसा क्यों नहीं बनाया। वह सबको एकसे सुख, एकसी बुद्धि और एकसे भोग दे सकता था। स्वर्ग मोक्ष का अधिकारी भी सबको एकसा बना सकता था। उसने ऐसा क्यों नहीं किया। लोक में जो दुःखी, दरिद्र और निकृष्ट. योनिवाले प्राणी दिखलाई देते हैं उन्हें उसे बनाना ही न था। वह ऐसा करता जिससे न तो किसी को किसी का स्वामी ही बनना पड़ता और न किसी को किसी का सेवक ही बनना पड़ता। एक तो उसे किसी का निर्माण ही नहीं करना था। यदि उसने ऐसा किया ही था तो सबको एकसे बनाता। प्रारम्भ से ही वह ऐसा ध्यान रखता जिससे किसी प्रकार की विषमता को जन्म ही न मिलता। न होता बाँस न बजती बाँसुरी । भला यह कहाँ का न्याय है कि एक नीच जाति का हो
और दूसरा उच्च जाति का, एक दुःखी दरिद्र हो और दूसरा सातिशय सम्पत्तिशाली, एक चोरी जारी करके जीवन बितावे और दूसरा न्याय की तराजू लेकर इसका न्याय करे। क्या इन सब प्राणियों का निर्माण करते समय वह सो गया था। यदि यह बात नहीं है तो फिर उसने ऐसा क्यों किया।
यद्यपि इस जिज्ञासा का समाधान उनके यहाँ कर्मवाद को स्वीकार करके किया जाता है। उनका कहना है कि यह सब दोष उसका नहीं है। किन्तु यह दोष उन उन प्राणियों के कर्म का है। जिसने जैसा कर्म किया उसे उसने वैसा बना दिया। भला वह इससे अधिक और करता ही क्या। आखिर वह बुद्धिमान ही तो ठहरा। वह ऐसा थोड़े ही कर सकता था कि जो अच्छा करे उसे भी अच्छा बनावे और जो बुरा करे उसे भी अच्छा बनावे। यदि वह ऐसा करता तो यह उसका सबसे.