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________________ ५. १७.] धर्म और अधर्म द्रव्यों के कार्य पर प्रकाश ११९ कारण होना चाहिये, क्यों कि निमित्त के बिना केवल उपादान से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। इसी आवश्यकता को पूर्ति के लिये जैन सिद्धान्त में धर्म और अधर्म द्रव्य माने गये हैं। धर्म द्रव्यका कार्य गमन में सहायता करना है और अधर्म द्रव्यका स्वभाव ठहरने में सहायता करना है। शंका-जीवों और पुद्गलोंके गमन करने और स्थित होने में अलग अलग निमित्त कारण देखे जाते हैं। जैसे मछली के गमन करने में जल निमित्तकारण है और पथिक के ठहरने में छाया निमित्त कारण है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये, अतएव धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य के मानने की क्या आवश्यकता है ? समाधान-निमित्त कारण भी साधारण और असाधारण के भेद से दो प्रकार के होते हैं। साधारण निमित्त वे हैं जो सब कार्यों के होने में समानरूपसे निमित्त होते हैं और असाधारण निमित्त वे हैं जो कुछ कार्यों के होने में निमित्त होते हैं और कुछ कार्यों के होने में निमित्त नहीं होते । मछली के गमन करने में जल निमित्त है सही पर वह मछली के गमन में ही निमित्त है सब जीवों और पुद्गलोंके गमन में नहीं किन्तु यहां विचार ऐसे निमित्त कारण का चला है जो सब जीवों और पुद्गलोंके गमन में या स्थितिमें निमित्त कारण बन सके । धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यका यही काम है, इसीलिये ये दोनों स्वतन्त्र द्रव्य माने गये हैं। शंका-आकाश द्रव्य सर्वत्र है, इस लिये गति और स्थिति इन दोनों का निमित्त कारण आकाश को मान लेने में क्या आपत्ति है ? समाधान-आकाश का कार्य अवकाश देना है अतः गति और स्थिति में उसे निमित्त नहीं माना जा सकता। शंका-तो फिर धर्म और अधर्म इनमें से किसी एकको ही गति और स्थिति का निमित्त मान लेना चाहिये ?
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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