SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. ८-११.] उक्त द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या का विचार २०९ उक्त द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या का विचारअसख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम् ॥ ८ ॥ आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ नाणोः॥ ११ ॥ धर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं । आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। पुद्गल द्रव्यके संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। अणुके प्रदेश नहीं होते।। पहले धर्म आदि पांचों द्रव्यों को कायवाला कह आये हैं और कायवालेका अर्थ है बहुप्रदेशी। परन्तु वहां उनके प्रदेशों की संख्या नहीं बतलाई गई है जिसका बतलाया जाना आवश्यक था, इसलिये प्रस्तुत सूत्रों द्वारा उनके प्रदेशोंकी संख्या बतलाई गई है। ___ आकाश के जितने स्थान को एक अविभागी पुद्गल परमाणु रोकता है वह प्रदेश है। इसमें अनन्त पुद्गल परमाणुओं को बद्ध और अबद्ध दशा में अवकाश देने की योग्यता है। इस हिसाब से गणना करने पर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक जीव द्रव्यके असंख्यात प्रदेश होते हैं। इन द्रव्यों के ये प्रदेश परस्पर में सम्बद्ध हैं। इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के अनन्त प्रदेश होते हैं। लोकाकाश और अलोकाकाश ये आकाश के दो भेद हैं । जितने आकाश में धर्मादि सब द्रव्य विलोके जाते हैं वह लोकाकाश है और शेष अलोकाकाश। लोकाकाश अलोकाकाश के अत्यन्त मध्य में स्थित है और इसका आकार पूर्व पश्चिम दिशा में कटि पर दोनों हाथ रखे हुए और पैर फैला कर खड़े हुए पुरुष के समान है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy