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________________ ४. ३५-३६. ] नारकों की जघन्य स्थिति १९५ समाधान- - ३२ वें सूत्र में 'सर्वार्थसिद्धि' यह पाठ अलग रखा है, इससे ज्ञात होता है कि सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो शङ्का- - क्या पूर्व पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति ही आगे आगे की जघन्य स्थिति होती है या उसमें कुछ विशेषता है ? समाधान - पूर्व पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति में एक समय मिलाने पर आगे आगे की जघन्य स्थिति होती है । उदाहरणार्थ - तेरहवें और चौदहवें कल्प को उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम है । इसमें एक समय मिला देने पर वह पन्द्रहवें और सोलहवें कल्प की जघन्य स्थिति होती है । शङ्का - यह विशेषता सूत्र में क्यों नहीं कही ? समाधान- अति सूक्ष्म होने से इसे सूत्र में नहीं कहा । नारकों की जघन्य स्थिति नारकाणां च द्वितीयादिषु । ३५ । दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् । ३६ । दूसरा आदि भूमियों में नारकों की पूर्व पूर्व को उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर की जघन्य स्थिति है । पहली भूमि में दस हजार वर्ष जघन्य स्थिति है । पहले चौंतीसवें सूत्र में देवों की जघन्य स्थिति का जो क्रम बतला आये हैं वही क्रम यहाँ द्वितीयादि भूमियों में नारकों की जघन्य स्थिति का है । अर्थात् पहली भूमि को एक सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति दूसरा भूमि में जघन्य स्थिति है और दूसरी भूमि को तीन सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति तीसरी भूमि में जघन्य स्थिति है । इसी प्रकार सातवीं भूमि तक जघन्य स्थिति जान लेना चाहिये । किन्तु इससे पहली भूमि में नारकों की जघन्य स्थिति ज्ञात नहीं होती, अतः उसका ज्ञान
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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