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________________ चार निकायों के भेदों के अवान्तर भेद त्रयस्त्रिंशलोक पालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः || ५ ॥ चतुर्निकाय के उक्त दस आदि भेदों में से एक-एक भेद इन्द्र, सामानिक त्रायत्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, श्रभियोग्य और किल्विषिक रूप हैं 1 ४.५.] १६९ किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क निकाय त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन दो विकल्पों से रहित हैं । 1 भवनवासिनिकाय के दस भेद है उनमें से प्रत्येक भेद में इन्द्र दिस प्रकार होते हैं । जो सामानिक आदि अन्य देवों के स्वामी होते हैं वे इन्द्र कहलाते हैं। जो आज्ञा और ऐश्वर्य को छोड़कर शेष सब बातों में इन्द्र के समान होते हैं वे सामानिक देव कहलाते हैं । लोक में पिता, गुरु और उपाध्याय का जो स्थान है, वह स्थान इनका है । जो देव मन्त्री और पुरोहित का काम करते हैं वे त्रयस्त्रिंश हैं एक-एक भेद में इनकी कुल संख्या तेतीस ही होती है अधिक नहीं । अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य परिषद के जो सभ्य होते हैं वे पारिषद देव कहलाते हैं । लोक में मित्र का जो स्थान है वह स्थान इनका वहाँ है । जो इन्द्र शरीर की रक्षा में नियुक्त हैं वे आत्मरक्ष कहलाते हैं । जो रक्षकस्थानीय हैं वे लोकपाल कहलाते हैं । जो पदाति आदि सात प्रकार की सेना में नियुक्त हैं वे अनीक कहलाते हैं । जो नगरवासी और देशवासियों के समान हैं वे प्रकोक कहलाते हैं । जो दास के समान हैं वे श्रभियोग्य कहलाते हैं और जो अन्तेवासियों के तुल्य हैं वे किल्विषिक कहलाते हैं । कल्पोपपन्न देवों के बारह भेदों में से प्रत्येक भेद में भी ये इन्द्रादि दस भेद होते हैं । किन्तु व्यन्तर निकाय के आठ भेद और ज्योतिष्क निकाय के पाँच भेदों में इन्द्र आदि आठ-आठ विकल्प ही सम्भव हैं, क्योंकि उनके त्रास्त्रिश और लोकपाल ये दो भेद नहीं होते ।। ४-५ ।।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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