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________________ चौथा अध्याय तीसरे अध्याय में नारक, तियं च और मनुष्य इनका वर्णन किया अब इस अध्याय में मुख्यरूप से देवों का वर्णन करते हैं प्रसंग से नारकों की जघन्य स्थिति का भी निर्देश किया गया है। देवों के निकायदेवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ देव चार निकायवाले हैं। निकाय शब्द का अर्थ समुदाय है। देवों के ऐसे प्रमुख समुदाय चार हैं । यथा - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । देव एक गति है जिसमें रहनेवाले प्राणी अधिकतर सुखशील होते हैं, नाना द्वीपों वनों, पर्वतों की चोटियो, कुञ्जगृहों आदि में विहार करते है। शरीर को छोटा, बड़ा आदि बनाने की उनमें क्षमता होती है ॥१॥ आदि के तीन निकायों की लेश्याआदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:* ॥ २ ॥ ___* श्वेताम्बर परम्पग में प्रारम्भ के दो निकायों में पीत तक चार और तीसरे निकाय में एक पीत लेश्या मानी गई है। इसी से उस परम्परा में यह और आगे का सातवाँ सूत्र भिन्न प्रकार से रचे गये हैं। इसके सिवा उस परम्परा में प्रकृत में लेश्या का अर्थ द्रव्यलेश्या-शरीर का रंग लिया गया जान पड़ता है। पं० सुखलाल जी ने भी अपने तत्त्वार्थसूत्र में यही अर्थ किया है किन्तु यह सूत्रानुसारिणी शैली के प्रतिकूल है। तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के ६ वें सूत्र में औदयिक भावों के प्रसंग से छह लेश्याओं का उल्लेख किया है। वहाँ स्पष्टरूप से इन्हें जीव के भाव बतलाया है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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