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________________ १५२ तत्त्वार्थसूत्र [३. ९.-२. जो एक लाख योजन का है। इसमें से एक हजार योजन जमीन में है। अलावा इसके चालीस योजन की चोटी और है। इससे मेरु पर्वत की । कुल ऊँचाई एक लाख चालीस योजन हो जाती है। - जमीन पर प्रारम्भ में मेरु पर्वत का विस्तार दस हजार योजन है ऊपर क्रम से घटता गया है। जिस हिसाब से ऊपर घटा है उसी हिसाब से जमीन के भीतर विस्तार बढ़ता गया है। मेरु पर्वत के तीन काण्ड है। पहला काण्ड जमीन से पाँच सौ योजन का दूसरा साढ़े बासठ हजार योजन का और तीसरा छत्तीस हजार योजन का है। प्रत्येक काण्ड के अन्त में एक एक कटनी है जिसका विस्तार पाँच सौ योजन है। केवल अन्तिम कटनी का विस्तार छह योजन कम है। एक जमीन पर और तीन मेरु पर्वत पर इस प्रकार यह चार बनों से घिरा हुआ है। इन वनों के क्रम से भद्रसाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये नाम हैं। पहली और दूसरी कटनी के बाद ग्यारह हजार योजन तक मेरु पर्वत सीधा गया है फिर क्रमशः घटने लगता है। मेरु पर्वत के चारों बनों में सोलह अकृत्रिम चैत्यालय हैं और पाण्डुक वन के चारों दिशाओं में चार पाण्डुक शिलाएँ हैं। जिन पर उस उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न हुए तीर्थङ्करों का अभिषेक होता है । इसका रंग पीला है ॥९॥ ____जम्बूद्वीप में मुख्यतया सात क्षेत्र हैं जो उनके बीच में पड़े हुए छह पर्वतों से विभक्त हैं। ये पर्वत वर्षधर कहलाते हैं ये सभी पूर्व से . पश्चिम तक लम्बे हैं। पहला क्षेत्र भारतवर्ष है जो क्षेत्र और पर्वत भारत दक्षिण में है। इससे उत्तर में हैमवतवर्ष है। इन दोनों का विभाग करनेवाला पहला हिमवान् पर्वत है। तीसरा क्षेत्र हरिवर्ष है जो हैमवतवर्ष के उत्तर में है। इन दोनों का विभाग करनेवाला दूसरा महाहिमवान् पर्वत है। चौथा क्षेत्र विदेहवर्ष है जो हरिवर्ष के उत्तर में है। इन दोनों का विभाग करनेवाला निषध
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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