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________________ · ३.१.-६.] लोक विचार १३३ उन भूमियों में क्रमशः तीस लाख, पञ्चीस लाग्य, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कग एक लाख और केवल पांच नाक हैं। ____नारक निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रियावाले होते हैं। तथा परस्पर उत्पन्न किये गये दुःखवाले होते हैं। ___ और चौथी भूमि से पहले अर्थात् तीन भूमियों तक संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गये दुःखवाले भी होते हैं। उन नरकों में रहनेवाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्रह. बाइस और तेतीस सागरोपम है। __ अलोकाकाश के बीचों-बीच लोकाकाश है। जो अकृत्रिम, अनादिनिधन, स्वभाव से निर्मित और छह द्रब्यों से व्याप्त है। यह उत्तर . दक्षिण सर्वत्र सात राजु लम्बा है। पूर्व पश्चिम नीचे लोक का विचार बार सात राजु चौड़ा है। फिर दोनों ओर से घटते-घटते सात राजु की ऊँचाई पर एक राजु चौड़ा है। फिर दोनों ओर बढ़तेबढ़ते साढ़े दस राजु की ऊँचाई पर पाँच राजु चौड़ा है। फिर दोनों ओर घटते-घटते चौदह राजु की ऊँचाई पर एक राजु चौड़ा है। पूर्व पश्चिम की ओर से देखने पर लोक का आकार कटि पर दोनों हाथ रखकर और पैरों को फैला कर खड़े हुए मनुष्य के समान प्राप्त होता है। जिससे अधोभाग वेत की श्रासन के समान, मध्य भाग झालर के समान और ऊर्ध्व भाग मृदंग के समान दिखाई देता है। यह लोक तीन भागों में बटा हुआ है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । मध्यलोक के बीचोंबीच मेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है । उसके नीचे का भाग अधोलोक, ऊपर का भाग अवलोक और बराबर रेखा में तिरछा फैला हुआ मध्यलोक कहलाता है। मध्यलोकका तिरछा विस्तार अधिक है इसलिये इसे तिर्यग्लोक भी कहते हैं।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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