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________________ [ १७ ] 'संयम प्रतिसेवना--' इत्यादि सूत्र में वे उसका दूसरा ही अर्थ करने लगे जब कि पूर्वोक्त अर्थ करने से ही वहाँ काम चल सकता था। एक बात और है। यह तो तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के देखने से ही विदित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना भाष्य लिखने के पहले ही हो चुकी थी। और भाष्य इसके बाद लिखा गया था। इसलिये सूत्रों में ऐसा दोष नहीं रहना चाहिये था जिसका अर्थ करने के लिये किसी को भी टीका के शब्द का आश्रय लेना पड़ता । पर हम देखते हैं कि भाष्य मान्य मूल सूत्रों में यह टि भी विद्यमान है। उदाहरण स्वरूप प्रथम अध्याय का “यथोक्त निमित्तः पड्विकल्पः शेषाणाम यह सूत्र लिया जा सकता है । इस सूत्र में आये हुये 'यथोक्तनिमित्तः पद का अर्थ करने के लिये इसी अध्याय के 'द्विविधोऽवधिः' सूत्र के भाष्य की सहायता लेनी पड़ती है, अन्यथा उक्त पद का अर्थ केवल मूल सूत्रों के आधार से स्पष्ट नहीं होता। ___ इन या ऐसे ही दूसरे प्रमाणों के आधार से यह स्पष्ट हो जाता है कि वाचक उमास्वाति मृल सूत्रकार नहीं हैं। बहुत सम्भव है कि गृद्धपिच्छ आचार्य, जिनका कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्तारूप से अनेक दिगम्बर आचार्यों ने उल्लेख किया है, इसके कर्ता रहे हो और उसी मूल तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि टीका व सूत्रों में आवश्यक परिवर्तन करके उसी पर तत्त्वार्थाधिगम भाध्य लिखा गया हो। मङ्गलाचरण हमने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' यह मङ्गलाचरण नहीं दिया है, क्योंकि हमारा अब भी यही ख्याल है कि यह आचार्य गृद्धपिच्छ की रचना नहीं है। यह सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में पाया जाता है, इसलिये हमारे ख्याल से यह सर्वार्थसिद्धि वृत्ति का ही अङ्ग माना जाना चाहिये । यदापि प्राचार्य विद्यानन्द इसका
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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