SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ तत्त्वार्थसूत्र [२.३१.-३५. ग्रहण करते हुए मनुष्य जीव आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि काल तक ठहरे रहते हैं। इन्हें आहार वर्गणा यह संज्ञा भी इमी से पड़ी है। तीन समयवाली तीसरी गति में और चार समयवाली चौथी गति में इसी प्रकार जानना चाहिये। अर्थात् इन दोनों गतियों में क्रम से दो और तीन समय जीव अनाहारक रहता है और तीसरे तथा चौथे समय में आहारक हो जाता है। कारण दो समय वाली दूसरी गति में बतला आये हैं। शंका--विग्रहगति में कार्मण काययोग तो होता ही है फिर वहाँ आहार वर्गणाओं का ग्रहण क्यों नहीं होता ? | समाधान--- वहाँ औदारिक आदि शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता और शरीर ग्रहण के निमित्त भी नहीं पाये जाते इसलिये योग के रहते हुए भी आहार वर्गणाओं का ग्रहण नहीं होता ॥३०॥ जन्म और योनि के भेद तथा उनके स्वामी सम्मूच्र्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तधोनयः ॥३२॥ जरायुजाण्डजपोतानां गर्भ: ॥३३॥ देवनारकाणामुपपादः ॥ ३४॥ शेषाणां सम्मूर्छनम् ॥ ३५॥ सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद के भेद से जन्म तीन प्रकार का है। इसकी सचित्त, शीत और संवृत; तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित्त उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये नौ योनियाँ हैं। * श्वेताम्बर पाठ 'सम्मूर्छनगर्भोपपाता ऐसा है। श्वेताम्बर पाठ 'जरायवण्डपोतबानां गर्भ:' ऐसा है । + श्वेताम्बर पाठ 'नारकदेवानामुपपात: ऐसा है ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy