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तत्त्वार्थसूत्र [२. २५.-३०. पाया जाता । यहाँ संज्ञा का यही अर्थ लिया है जो मनवाले जीवों के ही सम्भव है इस लिये मनवाले जीवों को ही संज्ञी कहा है।। २४॥
अन्तराल गतिसम्बन्धी विशेष जानकारी के लिये योग आदि विशेष बातों का वर्णन
विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २५ ॥ अनुश्रेणि गतिः ।। २६ ॥ अविग्रहा जीवस्या ॥२७॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः ।। २८ ॥ एकसमयाऽविग्रहा ॥ २९ ॥ एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ विग्रहगति में कार्मण काययोग होता है । गति आकाश को श्रेणि के अनुसार होती है। मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित होती है।
संमारी जीवकी गति विग्रहवाली और विग्रहरहित होती है। उसमें विग्रहवाली गति चार समय से पहले अर्थात् तीन समय तक होती है।
एक समयवाली गति विग्रहरहित होती है। एक, दो या तीन समय तक जीव अनाहारक होता है।
संसार जीव और पुद्गल के मेल से बना है। प्रति समय जीव नवीन परमाणुओं का ग्रहण करता है और जीर्ण परमाणुओं को छोड़ता
रहता है। यह परमाणुओं को ग्रहण करने को क्रिया "कम योग के निमित्त से होती है जिससे जाव हलन चलनरूप क्रिया करने में समर्थ होता है। योग के तीन भेद हैं--मनोयोग, +श्वेताम्बर पाठ 'एक समयोऽविग्रहः' है। श्वेताम्बर पाठ 'एक द्वौ वाऽनाहारकः' है ।
योग का