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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १.३३.
स्थास, कोश आदि क्रम से होनेवालों विविध पर्यायों में मिट्टी का बना रहना ऊर्ध्वता सामान्य है । सामान्य के जिस प्रकार दो भेद हैं इसी प्रकार विशेष के भी दो भेद हैं पर्याय विशेष और व्यतिरेक विशेष । जैसे आत्मा में हर्ष - विषाद आदि विविध अवस्थाएँ होती हैं उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में क्रम से होनेवालीं पर्यायों को पर्याय विशेष कहते हैं तथा गाय और भैंस दो पदार्थों में जो असमानता पायी जाती है। उसी को व्यक्तिरेक विशेष कहते हैं । ये दोनों प्रकार के सामान्य और विशेष पदार्थ गत होने के कारण पदार्थ सामान्य- विशेष उभयात्मक माना गया है । इनमें से सामान्य अंश के द्वारा वस्तु को ग्रहण करनेवाली बुद्धि को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और विशेष श्रंश के द्वारा ग्रहण करनेवाली बुद्धि को पार्यायार्थिक नय कहते हैं । इस तरह यद्यपि ये नय एक-एक अंश द्वारा वस्तु को ग्रहण करते हैं तो भी दूसरा अंश प्रत्येक नय में अविवक्षित रहता है इतनामात्र इस कथन का तात्पर्य है ।
शंका- जब कि व्यतिरेक विशेष व्यवहार नय का विषय है और व्यवहार नय का अन्तर्भाव द्रव्यार्थिक नय में होता है ऐसी हालत में व्यतिरेक विशेष को पर्यायार्थिक नय का विषय बतलाना कहां तक उचित है ?
समाधान- व्यवहार नय का अन्तर्भाव द्रव्यार्थिक नय में होता है या पर्यायार्थिक नय में यह दृष्टि भेदपर अवलम्बित है । एक दृष्टिके अनुसार कालकृतभेद से पूर्व तक वस्तु में जितना भी भेद होता है । वह सब द्रव्यार्थिक नय का विषय ठहरता है । सर्वार्थसिद्धि व सन्मतितर्क में इसी दृष्टि को प्रमुखता दी गई हैं । इसलिये इसके अनुसार व्यवहार नय का अन्तर्भाव द्रव्यार्थिक नय में ही होता है । किन्तु दूसरी दृष्टि के अनुसार व्यवहार नय का अन्तर्भाव पर्यायार्थिक
य में ही किया जा सकता है द्रव्यार्थिक नय में नहीं, क्यों कि यह दृष्टि भेदमात्र को पर्यायरूपसे स्वीकार करती है। अध्यात्म ग्रन्थों में विशेषतः पंचाध्यायी में इसका बड़ा ही आकर्षक ढंग से विवेचन किया गया है ।