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________________ १.३०.] एक साथ आत्मा में कितने ज्ञान सम्भव हैं ५३ नहीं जान सकता। इसी प्रकार अवधिज्ञान और मनःपर्याय के सद्भाव रहने पर भी जानना चाहिये। आशय यह है कि एक काल में दो, तीन या चार कितने ही ज्ञान रहे आवें पर प्रवृत्ति एक की ही होती है अन्य ज्ञान तब लब्धिरूप में रहते हैं। शंका-जब कि सामान्य से ज्ञान एक है और वह भी केवलज्ञान तब फिर उसके पांच भेद कैसे हो जाते हैं। ___ समाधान-जैसे एक मेघपटल सूर्यकिरणों के संयोग से अनेक रंगों को धारण कर लेता है वैसे ही एक ज्ञान के आवरण विशेष की अपेक्षा पाँच भेद हो जाते हैं। जब अपूर्णावस्था रहती है तब यथा संभव मतिज्ञान आदि चार ज्ञान प्रकट होते हैं और जब पूर्णावस्था रहती है तब परिपूर्ण और सुविशुद्ध एक केवलज्ञानमात्र प्रकट रहता है, शेष ज्ञान क्षायोपशमिक होने के कारण लयको प्राप्त हो जाते हैं। __ शंका-केवलज्ञानावरण सर्वघाती कर्म है और सर्वघातिका अर्थ है पूरी तरह से शक्ति का घात करना, इसलिये केवलज्ञानावरण के सद्भाव में अन्य ज्ञानों और उनके आवरणों का होना सम्भव ही नहीं, अन्यथा केवलज्ञानावरण सर्वघाति कर्म नहीं ठहरता ? ___ समाधान-जैसे मतिज्ञान आदि की क्षयोपशम या आवरणों की अपेक्षा से सत्ता मानी है वैसे उनकी स्वरुपसत्ता नहीं मानी है। इससे फलित होता है कि केवलज्ञानावरण सर्वघाति होते हुए भी ज्ञानशक्ति के प्रकाश को सर्वथा नहीं रोक पाता, किन्तु उसके रहते हुए भी अतिमन्दज्ञान प्रकाशमान ही रहता है। और इस प्रकार जो अतिमन्द ज्ञान प्रकाशमान रहता है वही आवरण के भेदों से मति आदि चारभागों में बँट जाता है। इसप्रकार स्वरूप सत्ता की अपेक्षा यद्यपि ज्ञान एक है तो भी आवरण भेद से वह पाँच प्रकार का है यह सिद्ध होता है ! शंका-जैसे सूर्य प्रकाश के समय चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि के प्रकाश
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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