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________________ तत्त्वार्थसूत्र [१.२६.२७.२८.२९. पदार्थों को ही है पर अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवें भाग में इसकी प्रवृत्ति होती है। और केवलज्ञान का माहात्म्य अचिन्त्य है। वह होता भी निरावरण है इसलिये वह रूपी और अरूपी सभी द्रव्य और उनकी सब पर्यायों को युगपत् जानता है। यह उक्त सूत्रों का भाव है। शंका-जब कि मतिज्ञान और श्रतज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं तब वे रूपी पदार्थों के सिवा अरूपी पदार्थों को कैसे जान सकते हैं ? समाधान-यद्यपि पांच इन्द्रियों के निमित्त से जो मतिज्ञान और उस पर से जो श्रुतज्ञान होता है वे रूपी पदार्थ को ही जान सकते हैं, पर मन के निमित्त से होनेवाले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के पदार्थों को जान सकते हैं; क्यों कि मन उपदेश पूर्वक रूपी और अरूपी सभी प्रकार के पदार्थों का चिन्तवन करके उनकी सत्ता और कार्यो का अनुभव कर सकता है। आशय यह है कि जैसे किसी वस्तु के परोक्ष रहने पर भी यदि अन्य साधनों द्वारा उनका चित्र मानस पटल पर अंकित हो जाय तो वह देखी हुई सी प्रतिभासित होने लगती है वैसे ही यद्यपि अरूपी पदार्थ भतिज्ञान और श्रतज्ञान के सर्वथा परोक्ष हैं तथापि मन से बार बार विचार करने पर उनका अस्तित्व और उनके कार्य अनुभवगम्य हो जाते हैं और इसी से मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति अरूपी पदार्थों में बतलाई है। श्राशय यह है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के द्वारा अरूपी पदार्थो का साक्षात् ग्रहण न हो कर मानसिक विकल्पों द्वारा ही उनका ग्रहण होता है। इसी से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रूपी और अरूपी पदार्थों को जान सकते हैं यह बतलाया है। सांख्यदर्शन में आत्मा को चेतन मान कर भी ज्ञान को आत्मा का धर्म नहीं माना है। वह इसे प्रकृति का परिणाम मानता है। नैयायिक और वैशेषिक दर्शन में ज्ञान माना तो गया है जीवनिष्ठ ही पर भेदवादी होने के कारण वे आत्मा में समवाय सम्बन्ध से इसका सद्भाव
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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