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श्रमण महावीर
'मुनिप्रवर ! निम्नस्तर की चेतना वाला एक पक्षी भी अपने नीड़ की रक्षा करता है। मुझे आश्चर्य है कि आप क्षत्रिय होकर अपने आश्रम की रक्षा के प्रति उदासीन हैं। क्या मैं आशा करूं कि भविष्य में मुझे फिर किसी तापस के मुंह से यह शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी ?'
महावीर ने केवल इतना-सा कहा, 'आप आश्वस्त रहिए। अब आप तक कोई उलाहना नहीं आएगा।'
कुलपति प्रसन्नता के साथ अपने कुटीर में चला गया। . महावीर ने सोचा-'अभी मैं सत्य की खोज में खोया हुआ रहता हूं। मैं अपने ध्यान को उससे हटाकर झोंपड़ी की रक्षा में केन्द्रित करूं, यह मेरे लिए सम्भव नहीं होगा । झोंपड़ी की घास गाएं खा जाती हैं, यह तापसों के लिए प्रीतिकर नहीं होगा। इस स्थिति में यहां रहना क्या मेरे लिए श्रेयस्कर है ?'
इस अश्रेयस् की अनुभूति के साथ-साथ उनके पैर गतिमान हो गए। उन्होंने वर्षावास के पन्द्रह दिन आश्रम में विताए, शेष समय अस्थिकग्राम के पाववर्ती शूलपाणि यक्ष के मंदिर में बिताया।
आश्रम की घटना ने महावीर के स्वतंत्रता-अभियान की दिशा में कुछ नए आयाम खोल दिए। उनके तत्कालीन संकल्पों से यह तथ्य अभिव्यंजित होता है । उन्होंने आश्रम से प्रस्थान कर पांच संकल्प किए
१. मैं अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूंगा। २. प्रायः ध्यान में लीन रहूंगा। ३. प्रायः मौन रहूंगा। ४. हाथ में भोजन करूंगा। ५. गृहस्थों का अभिवादन नहीं करूंगा।'
अन्तर्जगत् के प्रवेश का सिंहद्वार उद्घाटित हो गया । अ लौकिक मानदण्डों का भय उनकी स्वतंत्रता की उपलब्धि में वाधक नहीं रहा। अव शरीर, उपकरण और संस्कारों की सुरक्षा के लिए उठने वाला भय का आक्रमण निर्वीर्य हो गया।
. आवश्यकचूमि, पूर्वभाग, पृ० २७१, २७२ ।