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असंग्रह का वातायन : अभय का उच्छवास
एक दिन मैं सूक्ष्म लोक में विहार कर रहा था। अकस्मात् शरीर-चेतना से सम्पर्क स्थापित हो गया। मैंने पूछा, 'शरीर धर्म का आद्य साधन है'यह तुम्हारी स्वयं की अनुभूति है या दूसरों की अनुभूति का शब्दावतरण ?'
'क्या इसमें आपको सचाई का भास नहीं होता ?' 'मुले यह अपूर्ण सत्य लग रहा है।'
'वाणी में उतरा हुआ सत्य अपूर्ण ही होगा। उसमें आप पूर्णता की खोज क्यों कर रहे हैं ?' ___ मनुष्य-लोक की समस्या से सम्भवतः तुम अपरिचित हो। शरीर की प्रतिष्ठा के साथ स्वार्थ और व्यक्तिवाद प्रतिष्ठित हो गए हैं। इस समस्या के समाधान के लिए पूर्णता की गोज का अपेक्षित नहीं है ? तुम्हारी अनुभूति का मूल्य इस सत्य के संदर्भ में ही हो सकता है-~-शरीर अधर्म का माद्य साधन है।'
'यह फैसे ?'
'अधर्म का मूल आनक्ति है, मूर्दा है। उसका प्रारम्भ गरीर से होता है। फिर यह दूगरों तक पहुंचती है।'
मुडो प्रतीत हुआ फिशरीर-पेतना मेरी गवेषणा का अनुमोदः कर रही है, फिर भी मैंने अपनी उपलब्धि पी पुष्टि में कुछ कह दिया-'भगवान महावीर ने सत्य का साधाकार करने पर रहा, 'रेसन और देह को पृथकता का बोध द्वार दिना डिकोष सम्पर नहीं होता।'
सांख्य दर्शन या अभिमत है.--'विदेष ख्याति प्राप्त किए बिना मोक्षणी प्राप्ति मही होगी।'
टार सानिमामा-'देहास्यामः अपित पाप बिना साधना का पद प्रास नहीं होता।