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श्रमण महावीर
३३. न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचि: परे । यथावदाप्तत्व परीक्षया तु, त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः ॥'
-श्रद्धा के कारण तुम्हारे प्रति मेरा पक्षपात नहीं है। द्वेप के कारण दूसरों के प्रति अरुचि नहीं है। मैंने आप्तत्व की परीक्षा की है । उसी के आधार पर मेरे प्रभो महावीर ! मैं तुम्हारी शरण में आया हूं।
३४. न विद्युद् यच्चिन्हं न च तत इतोऽभ्रे भ्रमति यो,
न सौवं सौभाग्यं प्रकटयितुमुच्चैः स्वनति च । पराद् यांचावृत्या मलिनयति नांङ्गं क्वचिदपि, सतां शान्तिं पुष्यात् सदपि जिनतत्वाम्बुदवरः ॥ --जिसमें बिजली की चमक नहीं है, जो आकाश में इधर-उधर नहीं घूमता, जो अपना सौभाग्य प्रकट करने के लिए जोर-जोर से गर्जारव नहीं करता, जो दूसरे के सामने याचना का हाथ फैलाकर अपने अंग को कभी भी मलिन नहीं करता, वह महावीर के तत्त्व का जलधर सत्यनिष्ठ लोगों की शान्ति को पुष्ट करे।
३५. यः स्याद्वादी वदनसमये योप्यनेकान्तदृष्टिः,
श्रद्धाकाले चरणविषये यश्च चारित्रनिष्ठः । ज्ञानी ध्यानी प्रवचनपटुः कर्मयोगी तपस्वी, नानारूपो भवतु शरणं वर्धमानो जिनेन्द्रः॥
-जो बोलने के समय स्याद्वादी, श्रद्धाकाल में अनेकान्तदर्शी, आचरण की भूमिका में चरित्रनिष्ठ, प्रवृत्तिकाल में ज्ञानी, निवृत्तिकाल में ध्यानी, बाह्य के प्रति कर्मयोगी और अन्तर् के प्रति तपस्वी है, वह नानारूपधर भगवान् वर्द्धमान मेरे लिए शरण हो ।
३६. अदृश्यो यदि दृश्यो न, भक्तेनापि मया प्रभो ! स्याद्वादस्ते कथं तर्हि, भावी मे हृदयङ्गमः । -प्रभो ! मै तुम्हारा भक्त हूं। तुम अदृश्य हो। किन्तु मेरे लिए तुम यदि दृश्य नहीं बनते हो तो तुम्हारा स्याद्वाद मेरे हृदयंगम कैसे होगा?
१. अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका ३१ । २. जैन सिद्धान्त दीपिका, प्रशस्ति श्लोक २ । वंदनाकर-आचार्य तुलसी। ३. वीतरागाष्टक ४ । वंदनाकार-मुनि नथमल । ४. वीतरागाष्टक ४ । वंदनाकार-~मुनि नथमल ।