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________________ २७२ श्रमण महावीर नहीं है, पथ्य, रसशून्य और सर्वशास्त्र-सम्मत है।" वाग्भट ने उत्तर की भाषा में कहा 'आयुर्वेद के आचार्यों ने लंघन को परम औषध बतलाया है। वह भूमि और आकाश में उत्पन्न नहीं है, पथ्य, रसशून्य और सर्वशास्त्र सम्मत है ।२।। आयुर्वेद का लंघन यदि परम औषधि है तो उपवास चरम औषधि है। जैन आचार्यों ने लंघन और उपवास में बहुत अन्तर बतलाया है। लंघन का अर्थ केवल अनाहार है किन्तु उपवास का अर्थ बहुत गहरा है। केवल आहार न करना ही उपवास नहीं है। उसका अर्थ है आत्मा की सन्निधि में रहना, चित्तातीत चेतना का उदय होना । इस दशा में रोग की संभावना ही नहीं हो सकती। भगवान ने साधना-काल में कुछ महीनों तक रूक्ष और अरस भोजन के प्रयोग किए। शरीरशास्त्रियों का मत है कि पूरे तत्त्व न मिलने पर शरीर रुग्ण हो जाता है। पर भगवान् कभी रुग्ण नहीं हुए। चेतना के उच्च विकास ने शरीर की आंतरिक क्रिया पूरी तरह बदल दी। उनका प्रभु पूर्णभाव से जागृत हो गया। फिर यह देह-मन्दिर कैसे स्वस्थ, सुन्दर और सशक्त नहीं रहता ? कैवल्य प्राप्त होने पर भगवान् की साधना सम्पन्न हो गई। फिर उन्होंने नैरंतरिक उफ्वास नहीं किए ! उपवास अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है । वह लक्ष्यपूर्ति का एक साधन है । लक्ष्य की पूर्ति होने पर साधन असाधन बन गया। ___ स्कन्दक परिव्राजक भगवान् के पास गया। उस समय भगवान् प्रतिदिन आहार करते थे। इससे उनका शरीर बहुत पुष्ट, दीप्तिमान् और अलंकार के बिना भी विभूषित जैसा लग रहा था। वह भगवान के शारीरिक सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गया। श्वेताम्बर मानते हैं कि केवली होने के बाद भी भगवान् आहार करते थे। दिगम्बर मानते हैं कि केवली होने के बाद भगवान् आहार नहीं करते थे। वास्तविकता क्या है, यह नहीं कहा जा सकता। सिद्धान्ततः दोनों वास्तविकता से परे नहीं हैं । कैवल्य और आहार में कोई विरोध नहीं है। इसलिए भगवान् आहार करते थे—यह श्वेताम्बर मान्यता अयथार्थ नहीं है । शक्ति-संपन्न योगी खाए बिना भी शरीर धारण कर सकता है। इसलिए भगवान् आहार नहीं करते थे-यह दिगम्बर मान्यता भी अयथार्थ नहीं है। भगवान् वहत्तरवें वर्ष में चल रहे थे। उस अवस्था में भी वे पूर्ण स्वस्थ थे । वे १. अभूमिजमनाकाशं,पथ्यं रसविजितम् । ___ सम्मतं सर्वशास्त्राणां, वद वैद्य ! किमौषधम् ? २. अभूमिजमनाकाशं, पथ्यं रसविवजितम् । पूर्वाचार्यः समाब्यातं, लंघनं परमौषधम् ।।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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