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स्वतन्त्रता का अभियान
मषंगा? क्या जले पर नमक छिड़कना तुम्हारे लिए उचित होगा ? तुम ऐसा मत करो। तुम घर छोड़कर मत जाओ। यह पिता का उत्तराधिकार तुम सम्हालो। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार हूं। मेरा फिर यही अनुरोध है कि तुम घर
छोड़कर मत जाओ।" ___"भैया ! मुझे शासन के प्रति कोई आकर्षण नहीं है । जिस शासन में मानव की दुर्दशा के लिए अवकाश है, वह मेरे लिए कथमपि आदेय नहीं हो सकता । मेरा मन स्वतन्त्रता के लिए तड़प रहा है । आप मुझे आज्ञा दें, जिससे मैं अपने ध्येय-पथ पर आगे बढ़ ।' ___"भैया ! तुम्हें लगता है कि शासन में खामियां हैं । वह मनुष्य को मर्यादाशील नहीं बनाता, किन्तु उसकी परतंत्रता की पकड़ को मजबूत करता है तो उसे स्वस्थ बनाने के लिए तुम शासन में क्यों नहीं आते हो ?' ___ "भैया ! हम गणतंत्र के शासक हैं । गणतंत्रीय शासन-पद्धति में हमें सबके मतों का सम्मान करना होता है। उसमें अकेला व्यक्ति जैसे चाहे, वैसे परिवर्तन कैसे ला सकता है ? मैं पहले अपने अन्तःकरण में परिवर्तन लाऊंगा। उस प्रयोग के सफल होने पर फिर मैं उसे सामाजिक स्तर पर लाने का प्रयत्न करूंगा।'
"भैया ! तुम कहते हो वह ठीक है। मैं तुम्हारे इस महान् उद्देश्य की पूर्ति में वाधक नहीं बनूंगा। पर इस समय तुम्हारा घर से अभिनिष्क्रमण क्या उचित होगा ? क्या मैं इस आरोप से मुक्त रह सकूँगा कि माता-पिता के दिवंगत होते ही बड़े भाई ने छोटे भाई को घर से बाहर निकाल दिया ?'
नंदिवर्द्धन का तर्क भी बलवान् था और उससे भी बलवान् यी उसके हृदय की भायना । महावीर का करुणार्द्र हृदय उनका अतिक्रमण नहीं कर सका।
दिन भर की थकान के बाद सूर्य अपनी रश्मियों को समेट रहा था। चरवाहे जंगल में स्वच्छन्द घूमती गायों को एकत्र कर गांव में लौट रहे थे। दूकानदार दूकानों में विपरी हुई वस्तुओं को समेटकर भीतर रख रहे थे। सूर्य की रश्मियों के फैलाव के साथ न जाने कितनी वस्तुएं फैलती हैं और उनके सिमटने के साथ वे सिमट जाती हैं। सुपार्श्व और नंदिवर्द्धन के साथ बिखरी हुई कुमार वर्द्धमान की बात अभी सिमट नहीं पा रही थी।
मधुकर पुप्प-पराग का स्पर्श पाकर ही संतुष्ट नहीं होता, वह उससे मधु प्राप्त कर संतुष्ट होता है । सुपार्श्व और नंदिवर्द्धन दोनों अपने-अपने असंतोष का मादानप्रदान कर रहे थे। उन्हें कुमार वर्द्धमान से संतोष देने वाला मधु नभी मिला नही था।
सुमार वर्षमान अपने लक्ष्य पर अडिग थे, साथ-साथ अपने चाचा और
१, शमणि पूर्वभाग, पृ० १४८ ।