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________________ २१९ सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि में क्रियाशील अस्तित्व का दर्शन होता है। महावीर के व्यक्तित्व का अस्तित्व पर अधिकार होता तो उनकी वाणी में मृदुता और हृदय में क्रूरता होती। उनकी वाणी और हृदय-दोनों में मृदुता का अतल प्रवाह है। इससे प्रतीत होता है कि उनका अस्तित्व व्यक्तित्व पर छाया हुआ था। ____ व्यक्तित्व के धरातल पर महावीर एक संघ के शास्ता, संघवद्ध धर्म के व्याख्याता और एक पंथ के प्रवतंक हैं । अस्तित्व के धरातल पर वे केवल 'हैं'। 'होने के सिवाय और कुछ नहीं हैं । वे न संघ के शास्ता हैं और न शासित, न धर्म के व्याख्याता हैं और न श्रोता, न द्वैतवादी हैं और न अद्वैतवादी । द्वैत और अद्वत, व्याख्या और श्रुति, शासन और स्वीकृति-ये सव अस्तित्व की शाखाएं हैं। महावीर की सम्पूर्ण यात्रा व्यक्तित्व से अस्तित्व की ओर है । महावीर ने कहा 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है।' 'जिस पर तू शासन करना चाहता है, वह तू ही है।' 'जिसे तू परितप्त करना चाहता है, वह त ही है।' 'जिसे त दास बनाना चाहता है, वह त ही है।' 'जिसे तू उपद्रुत करना चाहता है, वह तू ही है।' इस पद-पद्धति को पढ़कर अद्वैतवादी कहेगा-महावीर अद्वैतवादी थे। जैन दर्शन का विद्यार्थी उलझ जाएगा कि महावीर द्वैतवादी थे, फिर उन्होंने अद्वैत की भाषा का प्रयोग कैसे किया ? महावीर इन दोनों से ही दूर हैं । वे अस्तित्ववादी हैं। अद्वैत और हैत-दोनों अस्तित्व से निकलते हैं इसलिए अस्तित्ववादी कभी अद्वैत की भापा में बोल जाता है और कभी हूँत की भापा में । 'होने की अनुमति में जो एकात्मकता है, वह 'कुछ होने की अनुभूति में नहीं हो सकती। 'कुछ होने' का अर्थ भेदानुभूति है। उममें हिंसा का संस्कार क्षीण नहीं होता। अपनी हिसा कोई नहीं चाहता। यदि कोई आत्मा मुझसे भिन्न नहीं है तो मैं किसे मारूंगा? अस्तित्व के धरातल पर यह अभेदानुभूति है। यही है अहिमा । आत्मा ही हिना है और आत्मा ही अहिमा है। आत्मा-आत्मा के वीच भेदानुभूति है, वह हिसा है और आत्मा-आत्मा के बीन अभेदानुभूति है, वह अहिंसा है। जहां केवल 'होना' है. वहां भेद और अभेद की भाषा नहीं है । यह भाषा उन जगत् की है, जहां 'कुछ होना ही मत्य है। व्यक्तित्व के जगत् में महावीर का तर्क दूसरा है । वे कहते है - 'किमी प्राणीशे मत मारो।' महावीर का युग यज्ञ का युग था। उस युग के ब्राह्मण यज्ञ की हिमा का मुक्त समर्थन करते थे। उनका सिद्धान्त था कि धर्म के लिए किया जाने वाला प्राणी १. सवारी, ५१०१।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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