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________________ २१० श्रमण महावीर 'स्वागत है, स्कंदक ! सुस्वागत है, स्कंदक ! अन्वागत है, स्कंदक ! स्वागतअन्वागत है, स्कंदक !' गौतम के मुक्त व्यवहार ने स्कंदक को मैत्री-सूत्र में बांध लिया । ३. कृतंगला के पास श्रावस्ती नगरी थी। वहां परिव्राजकों का एक आवास था । उसका आचार्य था गर्दभाल । स्कंदक उनका शिष्य था। उस श्रावस्ती में पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ रहता था। एक दिन वह परिव्राजक-आवास में चला गया। उसने स्कंदक से पूछा १. लोक सांत है या अनन्त ? २. जीव सांत है या अनन्त ? ३. मोक्ष सांत है या अनन्त ? ४. सुक्त-आत्मा सांत है या अनन्त ? ५. किस मरण से मरता हआ जीव जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाता है या घटाता है ? स्कंदक का मन संदेह से आलोड़ित हो उठा । वह इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका । पिंगल ने इन प्रश्नों को फिर दोहराया। स्कंदक फिर मौन रहा। पिंगल उससे समाधान लिये बिना लौट आया। परिव्राजक-आवास में मुक्त-गमन, मुक्त-आगमन और मुक्त-प्रश्न हृदय की मुक्तता से ही सम्भव था। स्कंदक ने सुना, भगवान महावीर कृतंगला से विहार कर श्रावस्ती आ गए हैं। उसने सोचा-मैं भगवान् महावीर के पास जाऊं और इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करूं । उसे भगवान् महावीर के पास जाने और प्रश्नों का उत्तर पाने में कोई संकोच नहीं था। वह मुक्तभाव से भगवान् महावीर के पास गया। भगवान् ने मुक्तभाव से स्कंदक को उन प्रश्नों के उत्तर दिए। भगवान् ने कहा-'स्कंदक ! द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सान्त है, काल और पर्याय की दृष्टि से लोक अनन्त है। इसी प्रकार जीव, मोक्ष और मुक्त-आत्मा भी द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सान्त हैं, काल और पर्याय की दृष्टि से अनन्त हैं। मरण दो प्रकार का होता है-बाल मरण और पंडित मरण। वाल मरण से मरने वाला जीव जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाता है और पंडित मरण से मरने वाला उसे घटाता भगवान् के उत्तर मुन स्कंदक परिव्राजक का मानस-चक्षु खुल गया। उसके 1. भगवई, २१२०.३६। २. तोवर काल का ग्यारहवां वर्ष ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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