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समता के तीन आयाम
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स्वर्णकार द्वारा इतना कहने पर भी मुनि का मौन भंग नहीं हुआ। स्वर्णकार ने सोचा, श्रमण का मन ललचा गया है । ये दण्ड के बिना नहीं मानेंगे। उसने रास्ता बन्द कर दिया। वह तत्काल गीला चर्मपट्ट लाया। मुनि का सिर उससे कसकर बांध दिया। वे भूमि पर लुढ़क गए। सूर्य के ताप से चर्मपट्ट और साथसाथ मुनि का सिर सूखने लगा। ___मुनि ने सोचा-'इसमें स्वर्णकार का क्या दोष है ? वह बेचारा भय से आतंकित है। मैं भी मौन-भंग कर क्या करता? मेरे मौन-भंग का अर्थ होताक्रौंच-युगल की हत्या । यह चक्रव्यूह किसी की बलि लिये बिना भग्न होने वाला नहीं है । दूसरों के प्राणों की बलि देने का मुझे क्या अधिकार है ? मैं अपने प्राणों की बलि दे सकता हूं।'
वे अपने प्राणों की बलि देने को प्रस्तुत हो गए । उनका चित्त ध्यान के प्रकोष्ठ में पहुंच गया। उनका मन सरिता में नौका की भांति तैरने लगा। कष्ट शरीर को होता है। उसकी अनुभूति मन को होती है । दोनों घुले-मिले रहते हैं, तब कष्ट का संवेदन तीव्र होता है। जब मन शरीर की सरिता के ऊपर तैरने लगता है तब उसका संवेदन क्षीण हो जाता है । यह है सहिष्णुता-समता के विवेक से पल्लवित, पुष्पित और फलित ।
द्वन्द्व का होना जागतिक नियम है। इसे कोई बदल नहीं सकता । द्वन्द्व की अनुभूति को बदला जा सकता है। यह परिवर्तन द्वन्द्वातीत चेतना की अनुभूति होने पर ही होता है । द्वन्द्व की अनुभूति का मूल राग और द्वेष का द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व का अन्त होने पर द्वन्द्वातीत चेतना जागृत होती है। समता का आदिविन्द द्वन्द्वातीत चेतना की जागृति का आदि-विन्दु है । समता का चरम-विन्दु द्वन्द्वातीत चेतना की पूर्ण जागृति है । इस अवस्था में समता और वीतरागता एक हो जाती है। साधन साध्य में विलीन हो जाता है। वस्तु-जगत् में द्वैत रहता है। किन्तु चेतना के तल पर द्वन्द्व के प्रतिविम्ब समाप्त हो जाते हैं। विषमता-विहीन समता अपने स्वरूप को खो देती है। न विषमता रहती है और न समता, कोरी चेतना शेष रह जाती है।