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________________ शान्ति का सिंहनाद वही समय पर आक्रामक बन जाती है । भगवान् ने इस ग्रन्थिमोक्ष के तीन पर्व निश्चित किए— १. पाक्षिक आत्मालोचन । २. चातुर्मासिक आत्मालोचन । ३. सावंत्सरिक आत्मालोचन । १६३ किसी व्यक्ति के प्रति मन में वैर का भाव निर्मित हो तो उसे तत्काल धो छाले, जिससे वह ग्रन्थि का रूप न ले । भगवान् ने साधुओं को निर्देश दिया'परस्पर कोई कटुता उत्पन्न हो तो भोजन करने से पहले-पहले उसे समाप्त कर दो ।' एक बार एक मुनि भगवान् के पास आकर बोला- "भंते ! आज एक मुनि से मेरा कलह हो गया। मुझे उसका अनुताप है। अब में क्या करूं ?" भगवान् - 'परस्पर क्षमा-याचना कर तो ।' मुनि - "भंते ! मेरा अनुमान है कि वह मुझे क्षमा नहीं करेगा ।' भगवान् - 'वह तुम्हें क्षमा करे या न करे, नादर दे या न दे, तुम्हारे जाने पर उठे या न उठे, वंदना करे या न करे, साथ में खाए या न खाए, साथ में रहे या न रहे, कलह को शान्त करे या न करे, फिर भी तुम उसे क्षमा करो।' मुनि -- "भंते ! मुझे अकेले को ही ऐसा क्यों करना चाहिए ?' भगवान् - 'श्रमण होने का अर्थ है शान्ति । श्रमण होने का अर्थ है मंत्री । तुम श्रमण होने का अनुभव कर रहे हो, इसलिए मैं कहता हूं कि तुम अपनी मंत्री को जगाओ। जो मैत्री को जागृत करता है, वह श्रमण होता है । जो मंत्री को जागृत नहीं करता, वह श्रमण नहीं होता ।' इस जगत् में सब लोग श्रमण नहीं होते । श्रमण भी सद समान वृत्ति के नहीं होते। इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर भगवान् ने कहा- 'यदि तत्काल मंत्री की अनुभूति न कर सको तो पक्ष के अंतिम दिन में अवश्य उसका अनुभव करो । पाक्षिकदिन में भी उसकी अनुभूति न हो सके तो चातुर्मासिक दिन तक नवश्य उसे विकसित करो | यदि उस दिन भी उसका अनुभव न हो तो मांवत्सरिक दिन तक अवश्य ही उनका विकास करो। यदि उस दिन भी द्वेष की ग्रन्थि नहीं खुलती है, सबके प्रति मंत्री भावना जागृत नहीं होती है तो समझो कि तुम सम्यदृष्टि नही हो, धार्मिक नही हो ।' धर्म की पहली नीड़ी है-- सम्पदृष्टि का निर्माण और सम्यग्दृष्टि की पहली पहचान है- शान्ति और मंत्री के मानस का निर्माण। जिससे मन में प्राणीमात के प्रति भैषीको अनुभूति नहीं है, यह महावीर की दृष्टि में धार्मिक नहीं है। व ने महापौर के इस तु का उपयोग कर अपने को दंडी से मधुमीवीर के अधिपति द्राण ही कर कसेनी आने पर उप ने रवाया था। पानी का अपहरण परम
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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