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फ्रान्ति का सिंहनाद
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सामने सम्प्रदाय गौण और धर्म मुख्य होता है। भगवान् महावीर ने सम्प्रदाय को मान्यता दी, पर मुख्यता नहीं दी। जो धर्मनेता अपने सम्प्रदाय में आने वाले व्यक्ति के लिए ही मुक्ति का द्वार खोलते हैं और दूसरों के लिए उसे बन्द रखते हैं, वे महावीर की दृष्टि में अहिंसक नहीं हैं, अपनी ही कल्पना के ताने-बाने में उलझे
भगवान् 'अश्रुत्वा केवली' के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर असाम्प्रदायिक दृष्टि को चरम विन्दु तक ले गये। __० किसी भी सम्प्रदाय में प्रव्रजित व्यक्ति मुक्त हो सकता है-यह स्थापना इस तथ्य की घोषणा थी-कोई भी सम्प्रदाय किसी व्यक्ति को मुक्ति का आश्वासन दे सकता है, यदि वह व्यक्ति धर्म से अनुप्राणित हो । कोई भी सम्प्रदाय किसी व्यक्ति को मुक्ति का आश्वासन नहीं दे सकता, यदि वह व्यक्ति धर्म से अनुप्राणित न हो।
० मोक्ष को सम्प्रदाय की सीमा से मुक्त कर भगवान् महावीर ने धर्म की असाम्प्रदायिक सत्ता के सिद्धान्त पर दोहरी मोहर लगा दी।
भगवान महावीर मुनित्व के महान् प्रवर्तक थे। वे मोक्ष की साधना के लिए मुनि-जीवन विताने को बहुत आवश्यक मानते थे। फिर भी उनकी प्रतिवद्धता का अन्तिम स्पर्श सचाई के साथ था, किसी नियम के साथ नहीं।
भगवान् ने 'गृहलिंगसिद्ध'को स्वीकृति दे क्या मोक्ष-सिद्धि के लिए मुनि-जीवन को एकछत्रता को चुनौती नहीं दी ? 'घरवासी गृहस्थ भी मुक्त हो सकता है'इसका अर्थ है कि धर्म की आराधना अमुक प्रकार के वेश या अमुक प्रकार की जीवन-प्रणाली को स्वीकार किए बिना भी हो सकती है। 'जीवन-व्यापी सत्य जीवन को कभी और कहीं भी आलोकित कर सकता है-इस सत्य को अनावृत कर भगवान् ने धर्म को आकाश की भांति व्यापक बना दिया। ___'प्रत्येक बुद्ध' का सिद्धान्त भी साम्प्रदायिक दृष्टि के प्रति मुक्त विद्रोह था। वे किसी सम्प्रदाय या परम्परा से प्रतिबद्ध होकर प्रवजित नहीं होते। वे अपने ज्ञान से ही प्रवुद्ध होते हैं। भगवान् ने उनको उतनी ही मान्यता दी, जितनी अपने तीर्थ में प्रवजित होने वालों को प्राप्त थी।
महावीर की ये चार स्थापनाएं-(१) अश्रुत्वा केवली (२) अन्यलिंगसिद्ध (३) गहलिंगसिद्ध (v) और प्रत्येक बुद्ध-'मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगी'-इस मिथ्या आश्वासन के सम्मुख मुली चुनौती के रूप में प्रस्तुत हुई।
भगवान् महावीर के युग में पचासों धर्म-सम्प्रदाय थे। उनमें कुछ शाश्वतवादी थे और गुछ अशाश्वतवादी । वे दोनों परस्पर प्रहार करते थे। इस साम्प्रदायिक अभिनिवेश के दो फलित सामने ला रहे थे