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श्रमण महावीर
भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व के चतुर्याम धर्म का विस्तार कर त्रयोदशांग
धर्म की प्रतिष्ठा की है । जैसे' -
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१. अहिंसा
२. सत्य
३. अचौर्य
४. ब्रह्मचर्य
५. अपरिग्रह
६. सम्यक् गति
८. सम्यक् आहार
९. सम्यक् प्रयोग
१०. सम्यक् उत्सर्ग ११. मनगुप्ति
१२. वचनगुप्ति
१३. कायगुप्ति ।
७. सम्यक् भाषा
इस विभागात्मक धर्म की स्थापना के दो फलित हुए
१. भगवान् पार्श्व के श्रमणों में आ रही आन्तरिक शिथिलता पर नियन्त्रण । २. आन्तरिक शिथिलता के समर्थक तत्त्वों का समाधान ।
भगवान् महावीर ने श्रामणिक, लौकिक और वैदिक - तीनों परम्पराओं के उन आचारों और विचारों का प्रतिवाद किया जो अहिंसा की शाश्वत प्रतिमा का विखंडन कर रहे थे । इस आधार पर भगवान् तीनों परम्पराओं के सुधारक या उद्धारक बन गए ।
कुछ विद्वान् मानते हैं कि भगवान् महावीर यज्ञों और कर्मकाण्डों में संशोधन करने के लिए एक क्रान्तिकारी धर्मनेता के रूप में सामने आए और उन्होंने जैन धर्म का प्रवर्तन किया । किन्तु यह मत तथ्यों पर आधृत नहीं है । वास्तविकता यह है कि भगवान् श्रमण-परम्परा के क्षितिज में उदित हुए । उनका प्रकाश परम्परा से मुक्त होकर फैला । उसने सभी परम्पराओं को प्रकाशित किया । भगवान् के सामने वेदों की प्रामाणिकता और ब्राह्मणों की प्रधानता को अस्वीकृत करने का प्रश्न ही नहीं था । वह श्रमण परम्परा के द्वारा पहले से ही स्वीकृत नहीं थी । श्रमण ओर वैदिक--ये दोनों महान् भारतीय जाति की स्वतंत्र शाखाएं स्वतन्त्र रूप में विकसित हुई थीं। दोनों में भगिनी का सम्बन्ध था, माता और पुत्री का नही ।
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भगवान् महावीर समन्वयवादी थे । वे क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बीच चल रही दीर्घकालीन कटुता को समाप्त करना चाहते थे । उन्होंने ब्राह्मणों को प्रधानता दी - एक जाति के रूप में नहीं, किन्तु व्यक्ति के रूप में । जातीय भेद-भाव उन्हें मान्य नहीं था ।
१. चारित्रभक्ति ( पूज्यपाद रचित), श्लोक ७ : तिस्र: सत्तमगुप्तयस्तनु मनोभाषानिमित्तोदयाः, पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परराचारं परमेष्ठिनो जिनमतेर्वीरान् नमामो वयम् ॥