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श्रमण महावीर
आतप लेता है, पारणा के दिन मुट्ठी भर उबले हुए छिलकेदार उड़द खाता है और चुल्लूभर गर्म पानी पीता है, वह तेजोलब्धि को प्राप्त कर लेता है ।"
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गौतम जैसे-जैसे भगवान् को सुन रहे थे, वैसे-वैसे उनका मन भगवान् के चरणों में लीन हो रहा था । वे अपने गुरु के गौरवमय अतीत पर प्रफुल्ल हो रहे थे । वे भावावेश में बोले - 'भंते ! मैंने आपको बहुत कष्ट दिया । पर क्या करूं, इसके बिना अतीत की शून्यता को भर नहीं सकता । भंते ! आपको मेरी भावना की पूर्ति के लिए थोड़ा कष्ट और करना होगा । भंते ! महाश्रमण पार्श्व का धर्मतीर्थ आज भी चल रहा है। उसमें सैकड़ों सैकड़ों साधु-साध्वियां विद्यमान हैं । भगवान् से उनका कभी साक्षात् नहीं हुआ ?'
'गौतम ! मुझे लोकमान्य अर्हत् पार्श्व के शासन से च्युत कुछ परिव्राजक मिले थे । उनके शासन का कोई साधु नहीं मिला । गोशालक से उनका साक्षात् हुआ था । मैं 'कुमाराक सन्निवेश के चंपक रमणीय उद्यान में विहार कर रहा था । गोशालक मेरे साथ था । दुपहरी में उसने भिक्षा के लिए सन्निवेश में चलने का अनुरोध किया । मेरे उपवास था, इसलिए मैं नहीं गया । वह सन्निवेश में गया ।
उस सन्निवेश में कूपनय नाम का कुंभकार रहता था । वह बहुत धनाढ्य था । उसकी शाला में भगवान् पार्श्व की परम्परा के साधु ठहरे हुए थे । गोशालक ने उन्हें देखा । उनके बहुरंगी वस्त्रों को देख गोशालक ने पूछा - 'आप कौन हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम श्रमण हैं । भगवान् पार्श्व के शासन में साधना कर रहे हैं ।'
गोशालक बोला--' इतने वस्त्र - पात्र रखने वाले श्रमण कैसे हो सकते हैं ?' 'उसने बहुत देर तक पाश्र्वापत्यीय श्रमणों से वाद-विवाद किया | फिर मेरे पास लौट आया । उसने मुझसे कहा --- 'भंते ! आज मैंने परिग्रही साधुओं को देखा है ।' मैंने अन्तर्ज्ञान से देखकर बताया- 'वे परिग्रही नहीं हैं । वे भगवान् पार्श्व के शिष्य हैं ।”
'एक बार तम्बाय सन्निवेश में भी पार्श्व की परम्परा के आचार्य नंदिषेण के श्रमणों से गोशालक मिला था । गौतम ! नंदिषेण बहुत ज्ञानी और ध्यानी श्रमण थे । वे रात्रि के समय चौराहे पर खड़े होकर ध्यान कर रहे थे। उस समय आरक्षिक
का पुत्र आया । उसने नंदिषेण को चोर समझकर मार डाला ।"
'भंते ! यह तो बहुत बुरा हुआ ।'
'गौतम ! क्या दासप्रथा बुरी नहीं है ? क्या पशु बलि बुरी नहीं है ? क्या
१. भगवती, १५/६६, ७०, ७६; आवश्यकचूर्ण, पूर्वभाग, पृ० २६६ ।
२. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २८५, २८६ ।
३. आवश्यकचूर्ण, पूर्वभाग, पृ० २६१ ।