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________________ १२४ श्रमण महावीर आतप लेता है, पारणा के दिन मुट्ठी भर उबले हुए छिलकेदार उड़द खाता है और चुल्लूभर गर्म पानी पीता है, वह तेजोलब्धि को प्राप्त कर लेता है ।" I - गौतम जैसे-जैसे भगवान् को सुन रहे थे, वैसे-वैसे उनका मन भगवान् के चरणों में लीन हो रहा था । वे अपने गुरु के गौरवमय अतीत पर प्रफुल्ल हो रहे थे । वे भावावेश में बोले - 'भंते ! मैंने आपको बहुत कष्ट दिया । पर क्या करूं, इसके बिना अतीत की शून्यता को भर नहीं सकता । भंते ! आपको मेरी भावना की पूर्ति के लिए थोड़ा कष्ट और करना होगा । भंते ! महाश्रमण पार्श्व का धर्मतीर्थ आज भी चल रहा है। उसमें सैकड़ों सैकड़ों साधु-साध्वियां विद्यमान हैं । भगवान् से उनका कभी साक्षात् नहीं हुआ ?' 'गौतम ! मुझे लोकमान्य अर्हत् पार्श्व के शासन से च्युत कुछ परिव्राजक मिले थे । उनके शासन का कोई साधु नहीं मिला । गोशालक से उनका साक्षात् हुआ था । मैं 'कुमाराक सन्निवेश के चंपक रमणीय उद्यान में विहार कर रहा था । गोशालक मेरे साथ था । दुपहरी में उसने भिक्षा के लिए सन्निवेश में चलने का अनुरोध किया । मेरे उपवास था, इसलिए मैं नहीं गया । वह सन्निवेश में गया । उस सन्निवेश में कूपनय नाम का कुंभकार रहता था । वह बहुत धनाढ्य था । उसकी शाला में भगवान् पार्श्व की परम्परा के साधु ठहरे हुए थे । गोशालक ने उन्हें देखा । उनके बहुरंगी वस्त्रों को देख गोशालक ने पूछा - 'आप कौन हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम श्रमण हैं । भगवान् पार्श्व के शासन में साधना कर रहे हैं ।' गोशालक बोला--' इतने वस्त्र - पात्र रखने वाले श्रमण कैसे हो सकते हैं ?' 'उसने बहुत देर तक पाश्र्वापत्यीय श्रमणों से वाद-विवाद किया | फिर मेरे पास लौट आया । उसने मुझसे कहा --- 'भंते ! आज मैंने परिग्रही साधुओं को देखा है ।' मैंने अन्तर्ज्ञान से देखकर बताया- 'वे परिग्रही नहीं हैं । वे भगवान् पार्श्व के शिष्य हैं ।” 'एक बार तम्बाय सन्निवेश में भी पार्श्व की परम्परा के आचार्य नंदिषेण के श्रमणों से गोशालक मिला था । गौतम ! नंदिषेण बहुत ज्ञानी और ध्यानी श्रमण थे । वे रात्रि के समय चौराहे पर खड़े होकर ध्यान कर रहे थे। उस समय आरक्षिक का पुत्र आया । उसने नंदिषेण को चोर समझकर मार डाला ।" 'भंते ! यह तो बहुत बुरा हुआ ।' 'गौतम ! क्या दासप्रथा बुरी नहीं है ? क्या पशु बलि बुरी नहीं है ? क्या १. भगवती, १५/६६, ७०, ७६; आवश्यकचूर्ण, पूर्वभाग, पृ० २६६ । २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २८५, २८६ । ३. आवश्यकचूर्ण, पूर्वभाग, पृ० २६१ ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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