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श्रमण महावीर
किया । फिर चन्दनबाला के हाथ से भिक्षा लेकर भोजन किया । यह कोई अकारण आग्रह नहीं था । यह मेरा प्रयोग था, नारी जाति के पुनरुत्थान की दिशा में ।'
'भंते ! मैं अनुभव कर रहा हूं कि भगवान् का वह प्रयोग बहुत सफल रहा। चन्दनबाला को दीक्षित कर भगवान् ने नारी जाति के विकास का अवरुद्ध द्वार ही खोल दिया । भंते ! भगवान् ने एक जाति के उदय का प्रयत्न किया, क्या इससे दूसरी जाति का अनुदय नहीं होगा ?'
'गौतम ! समता धर्म का साधक सर्वोदय चाहता है । वह किसी एक के हित-साधन से दूसरे के हित को बाधित नहीं करता । जब मनुष्य विषमता का पथ चुनता है, तभी हितों का संघर्ष खड़ा होता है । मैंने दासप्रथा का विरोध सर्वोदय की दृष्टि से किया । मेरा समता धर्म किसी भी व्यक्ति को दास बनाने की स्वीकृति नहीं देता । मैं दास बनाने में बड़े लोगों का अहित देखता हूं, नहीं बनाने में नहीं देखता । '
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‘भंते ! भगवान् को कष्ट न हो तो मैं जानना चाहता हूं कि भगवान् ने समता के प्रयोग मानव-जगत् पर ही किए या समूचे प्राणी जगत् पर ?'
'गौतम ! मेरें समता धर्म में पशु-पक्षियों का मूल्य कम नहीं है । समूचे प्राणी जगत् को मैंने आत्मा की दृष्टि से देखा है। चंडकौशिक सर्प मुझे डसता रहा और मैं उसे प्रेम की दृष्टि से देखता रहा । आखिर विषधर शान्त हो गया । उसमें समता का निर्झर प्रवाहित हो गया ।'
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'भंते ! भगवान् अब भविष्य में क्या करना चाहते हैं ? '
'गौतम ! जो साधना - काल में किया, वही करना चाहता हूं । मेरे करणीय की सूची लम्बी नहीं है । मेरे सामने एक ही कार्य है और वह है विषमता के आसन पर समता की प्रतिष्ठा ।'
'भंते ! समता की प्रतिष्ठा चाहने वाला क्या शरीर के प्रति विषम व्यवहार कर सकता है ? '
'कभी नहीं, गौतम !'
'भंते ! फिर भगवान् ने कैसे किया ? बहुत कठोर तप तपा । क्या यह शरीर के प्रति समतापूर्ण व्यवहार है ?'
'गौतम ! इसका उत्तर बहुत सीधा है । जितना रोग उतनी चिकित्सा और जैसा रोग वैसी चिकित्सा । मैंने रोगानुसार चिकित्सा की, शरीर को यातना देने की कोई चेष्टा नहीं की ।'
'भंते! संस्कार-शुद्धि ध्यान से ही हो जाती, फिर भगवान् को तप क्यों आवश्यक हुआ ?' .
'गौतम ! एकांगी कार्य में मेरा विश्वास नहीं है, इसलिए मैंने तप और ध्यान दोनों को साधा । मैं चाहता हूं एकांगिता की वेदी पर समन्वय की प्रतिष्ठा ।'