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________________ १२० श्रमण महावीर किया। फिर चन्दनबाला के हाथ से भिक्षा लेकर भोजन किया । यह कोई अकारण आग्रह नहीं था। यह मेरा प्रयोग था, नारी-जाति के पुनरुत्थान की दिशा में ।' ____ 'भंते ! मैं अनुभव कर रहा हूं कि भगवान् का वह प्रयोग बहुत सफल रहा। चन्दनबाला को दीक्षित कर भगवान् ने नारी जाति के विकास का अवरुद्ध द्वार ही खोल दिया । भंते ! भगवान् ने एक जाति के उदय का प्रयत्न किया, क्या इससे दूसरी जाति का अनुदय नहीं होगा ?' ___'गौतम ! समता धर्म का साधक सर्वोदय चाहता है। वह किसी एक के हित-साधन से दूसरे के हित को बाधित नहीं करता । जब मनुष्य विषमता का पथ चुनता है, तभी हितों का संघर्ष खड़ा होता है। मैंने दासप्रथा का विरोध सर्वोदय की दृष्टि से किया। मेरा समता धर्म किसी भी व्यक्ति को दास बनाने की स्वीकृति नहीं देता । मैं दास बनाने में बड़े लोगों का अहित देखता हूं, नहीं बनाने में नहीं देखता। 'भंते ! भगवान् को कष्ट न हो तो मैं जानना चाहता हूं कि भगवान् ने समता के प्रयोग मानव-जगत् पर ही किए या समूचे प्राणी-जगत् पर ?' 'गौतम ! मेरे समता धर्म में पशु-पक्षियों का मूल्य कम नहीं है । समूचे प्राणी जगत् को मैंने आत्मा की दृष्टि से देखा है । चंडकौशिक सर्प मुझे डसता रहा और मैं उसे प्रेम की दृष्टि से देखता रहा । आखिर विषधर शान्त हो गया। उसमें समता का निर्झर प्रवाहित हो गया।' 'भंते ! भगवान् अव भविष्य में क्या करना चाहते हैं ?' . 'गौतम ! जो साधना-काल में किया, वही करना चाहता हूं। मेरे करणीय की सूची लम्बी नहीं है । मेरे सामने एक ही कार्य है और वह है विषमता के आसन पर समता की प्रतिष्ठा।' 'भते ! समता की प्रतिष्ठा चाहने वाला क्या शरीर के प्रति विषम व्यवहार कर सकता है ?' 'कभी नहीं, गौतम !' 'भंते ! फिर भगवान् ने कैसे किया ? बहुत कठोर तप तपा । क्या यह शरीर के प्रति समतापूर्ण व्यवहार है ?' ____ 'गौतम ! इसका उत्तर बहुत सीधा है । जितना रोग उतनी चिकित्सा और जैसा रोग वैसी चिकित्सा । मैंने रोगानुसार चिकित्सा की, शरीर को यातना देने की कोई चेष्टा नहीं की।' "भंते ! संस्कार-शुद्धि ध्यान से ही हो जाती, फिर भगवान् को तप क्यों आवश्यक हुआ ?'. ‘गौतम ! एकांगी कार्य में मेरा विश्वास नहीं है, इसलिए मैंने तप और ध्यान दोनों को साधा। मैं चाहता हूं एकांगिता की वेदी पर समन्वय की प्रतिष्ठा।'
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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